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एक नदी दो पाट

गुलशन नन्दा

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :323
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9560

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'रमन, यह नया संसार है। नव आशाएँ, नव आकांक्षाएँ, इन साधारण बातों से क्या भय।


'वह कैसे?'

'अफीम खाएँगे, चरस का नशा करेंगे और शराब पीएँगे। कम्पनी ने इसकी मज़दूरी इतनी ही रखी है जो दोनों समय खाना मिल जाए।'

'परन्तु यह आय तो दो समय खाने के लिए भी थोड़ी है, विलियम!'

'पैसा तो...'

'मैं समझता हूँ कि आप में और दूसरे अफसरों में थोड़ा अन्तर अवश्य होना चाहिए।'

'कैसा अन्तर?'

'वह ठहरे विदेशी, परन्तु आपकी धमनियों में इसी देश का लहू है।'

'मिस्टर मुखर्जी!' विलियम क्रोध में कुर्सी से उठते हुए बोला, 'मैं पहले कम्पनी का शुभचिन्तक हूँ और बाद में और कोई।'

यह कहता हुआ वह भीतर चला गया। माधवी उनकी बातें सुनकर बाहर आ गई और आश्चर्य से विनोद को देखते हुए उसके समीप बैठ गई। विनोद विलियम को आवेश में आते देखकर मुस्करा रहा था।

'क्या बात हुई?' माधवी ने उससे पूछा।

अपनी जाति की याद आ गई...आधा तीतर आधा बटेर! अपने-आपको बड़ा अंग्रेज़ समझता है!'

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