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घाट का पत्थर

गुलशन नन्दा

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :321
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9564

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लिली-दुल्हन बनी एक सजे हुए कमरे में फूलों की सेज पर बैठी थी।

‘कहिए, सेवक किस योग्य है?’

‘परंतु वचन दो कि यह बात केवल मेरे और तुम्हारे बीच रहेगी।’

‘क्या इसकी भी आवश्यकता है? आप कहिए तो।’

‘मेरी इच्छा है तुम्हारे नाम से खाता खुलवा दिया जाए और जो सौदे बाहर-ही-बाहर कर दिए जाए, उसमें जमा हो जाएं। इससे बहुत लाभ होगा।’

‘कैसे?’ दीपक ने और समीप आते हुए पूछा।

‘एक तो लंबे-चौड़े हिसाब रखने की आवश्यकता न होगी, दूसरे इन्कमटैक्स की बचत।’

‘ठीक तो है परंतु कोई आपत्ति तो न खड़ी हो जाए।’

‘यह मुझ पर छोड़ो, जैसा कहूं करते जाओ परंतु इस बात को किसी से....।’

‘आप निश्चिंत रहें।’

दोनों यह बात कर ही रहे थे कि दरवाजा खुला और लिली हाथ में पुस्तकें लिए अंदर आई।

‘तुम इस समय यहां?’ सेठ साहब ने आश्चर्य से लिली की ओर देखते हुए कहा।

‘जान पड़ता है कि आप सवेरे का वायदा भूल गए....।’ मेज पर पुस्तक रखते हुए लिली ने उत्तर दिया।

‘ओह! मैं तो बिल्कुल भूल ही गया था। तुमने तो सिनेमा जाने को कहा था ना। कौन-सी पिक्चर?’

‘रेंजर्स एज।’

‘देखो लिली, आज काम अधिक है और मैंने सात बजे एक महाशय से मिलने के लिए कह भी दिया है। कल चले चलेंगे।’

‘मैंने तो टिकट भी मंगवा लिए हैं। भीड़ बहुत है। पहले ही बहुत कठिनाई से टिकट मिले हैं।’ लिली ने कुछ बिगड़ते हुए कहा।

‘तो लाचारी है क्या करूं.... तो ऐसा करो आज दीपक को साथ ले जाओ। आधे घंटे में कारखाना बंद होने वाला है। वह शीघ्र ही काम समाप्त कर लेगा।’

‘परंतु डैडी....।’

‘मैं फिर किसी दिन देख लूंगा, आज तुम दोनों देख आओ। दीपक! शामू से कहना तुम्हें छोड़ आएगा और वापस तुम बस पर आ जाना।’

सिनेमा आरंभ होने में आधा घंटा था। लिली और दीपक बोर्ड पर लगे चित्र देख रहे थे।

‘आओ तो जरा रेस्तरां की ओर।’ दीपक ने लिली का हाथ खींचते हुए बोला।

‘क्यों! मुझे तो प्यास नहीं।’

‘केवल एक-एक आइसक्रीम।’

‘तुम्हें खानी हो तो खा लो, मेरा तो जी नहीं है।’

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