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घाट का पत्थर

गुलशन नन्दा

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :321
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9564

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लिली-दुल्हन बनी एक सजे हुए कमरे में फूलों की सेज पर बैठी थी।

दोनों वापस दीपक के पास आ गए।

‘क्यों दीपक, वापसी कैसे होगी?’

‘कार तो डैडी को चाहिए थी, बस में चले जायेंगे।’ दीपक ने फीकी मुस्कराहट होंठों पर लाकर कहा।

‘वह सामने मेरी कार खड़ी है। वहां प्रतीक्षा करना। सब साथ ही चलेंगे।’ सागर ने कहा और लिली की ओर देखकर फिर बोला-

‘आओ, एक-एक आइसक्रीम हो जाए।’

‘कोई आवश्यकता तो नहीं।’

‘ऐसी भी क्या बात है?’ सागर ने लिली का हाथ खींचकर उसे बाहर की ओर ले जाते हुए कहा।

लिली दीपक की ओर देखकर मुस्कराने लगी और बोली, ‘चलो दीपक।’

तीनों ने बैठकर आइसक्रीम खाई। खेल आरंभ होने में थोड़ी देर अभी बाकी थी। सागर उनसे आज्ञा लेकर चला गया और वे दोनों जाकर हॉल में बैठ गए।

दीपक चुप बैठा था।

‘सिनेमा देखने आये हो या किसी जंगल में तपस्या करने?’लिली ने दीपक की बांह पर चिकोटी भरते हुए कहा।

‘तपस्या तो नहीं। जरा आइसक्रीम खाने से कलेजा ठंडा हो गया है। उसे गर्म करने के प्रयत्न में हूं।’

‘गुस्सा तो तुम्हें हवा के चलने से आ जाता है। मेरी और तुम्हारी बात तो अपने घर की सी है। जब दूसरा आदमी अनुरोध करे तो इंकार किस प्रकार हो!’

‘ठीक है और वे प्राइवेट बातें क्या हो रही थीं?’

लिली हंस पड़ी, ‘अरे वह तो वैसे ही कॉलेज की एक लड़की की बात थी जिसे तुम्हारे सामने कहना अच्छा न लगा।’

‘शायद शर्म आती होगी! देखो लिली, खेल समाप्त होते ही हम सीधे बस पर वापस चलेंगे, सागर के साथ जाना मुझे पसंद नहीं।’

‘तो इसमें डर क्या है? मैं अकेली तो हूं नहीं, तुम भी तो मेरे साथ हो।’

‘कुछ भी हो, मैं नहीं जाऊंगा।’

‘अच्छा बाबा, जैसा कहोगे वैसा ही करेंगे। अब पिक्चर का मजा किरकिरा न करो। देखो, बत्तियां बंद हो गईं। अब उधर ध्यान दो।’

खेल समाप्त होते ही दोनों बस स्टैंड की ओर बढ़े। आकाश पर काले बादल छाए हुए थे और हल्की-हल्की बूंदें भी पड़ रही थी। वर्षा के कारण अधिक भीड़ न थी। दादर की बस आई। दीपक ने सोचा कि वर्षा में भीगने से तो अच्छा है कि दादर पहुंच जाए और वहां से थोड़ा पैदल चल लेना। संभवतः सीधी जाने वाली बस में स्थान ही न मिले।

दोनों शीघ्रता से बस की ऊपर वाली मंजिल में अगली सीटों पर जा बैठे। सड़क पर लगी हुई बिजली का प्रकाश बस के शीशों में से आकर लिली के मुख पर अपनी छाया डालता। भीगी हुई पक्की सड़क शीशे की भांति चमक रही थी और वर्षा का जल थोड़ा-थोड़ा बस की खिड़की से टपक रहा था।

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