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घाट का पत्थर

गुलशन नन्दा

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :321
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9564

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लिली-दुल्हन बनी एक सजे हुए कमरे में फूलों की सेज पर बैठी थी।

‘इसमें बुराई क्या है? आदमी तो दिलचस्प जान पड़ता है।’

‘तुम नहीं समझतीं। कभी-कभी आवश्यकता से अधिक दिलचस्पी अच्छी नहीं होती। चलो, अब तो जो हो गया।’

‘अच्छा तो मैं चलती हूं। बहुत देर हो गई।’

‘कुछ देर और ठहरो। खाना खाकर ही चली जाना।’

‘नहीं, बहुत देर हो जाएगी।’

‘दिलचस्प आदमी को भेज दूंगी। रास्ता अच्छा कट जाएगा।’

‘चल, शैतान कहीं की।’ माला ने नीचे उतरते हुए कहा। दोनों हंसने लगीं।

लिली फाटक तक उसे छोड़ने गई। वापस आने पर वह गुनगुनाती हुई ड्राइंगरूम में आ गई।

‘क्यों लिली, यदि तुम नहीं चाहती तो मैं पूना नहीं जाता। मैं तो वैसे ही हां कर बैठा।’ दीपक ने कहा। वह सामने सोफे पर लेटा हुआ था।

‘वैसे ही क्या?तुम्हारे जाने से तो मेरा मन लगा रहेगा।’ लिली ने एक फीकी हंसी होंठों पर लाते हुए कहा।

‘सच लिली! तब तो मैं अवश्य जाऊंगा।’ दीपक ने प्रसन्नता से कहा।

रात को जब डैडी वापस आए तो खाने के बाद लिली ने बात छेड़ दी। दोनों के जाने में तो उन्हें कोई आपत्ति न थी, परंतु दीपक का सोमवार को वापस आना उन्हें स्वीकार न था। अंत में निर्णय यह हुआ कि दीपक इतवार को ही रात की गाड़ी से वापस आ जाए। दीपक इसी में प्रसन्न था।

इतवार भी आया। दोनों ने आवश्यक सामान साथ लिया और स्टेशन पर पहुंच गए। माला पहले से ही उसकी प्रतीक्षा कर रही थी। उन्होंने एक कम्पार्टमेंट बुक करवा लिया था। दीपक को यह देखकर आश्चर्य हुआ कि सागर भी उनके साथ जा रहा है। सागर के साथ एक और लड़का अनिल भी था जो हाथ मिलाते ही बोला, ‘तो यह है मिस्टर दीपक, जिनके बारे में माला कह रही थी। आपसे मिलकर बहुत प्रसन्नता हुई, परंतु मैंने कभी आपको कॉलेज....।’

‘कॉलेज में नहीं, यह तो लिली के पिताजी के मैनेजर हैं।’ सागर ने दीपक को अपने पास ही बैठने का स्थान देते हुए कहा।

‘माला और लिली कहां गई?’दीपक ने माथे से पसीना पोंछते हुए कहा।

‘घबराइए नहीं, वे सामने प्लेटफार्म पर मैगजीन ले रही हैं।’

गाड़ी चलने को थी। लिली और माला शीघ्रता से कम्पार्टमेंट में आ गई। इंजन ने सीटी दी और गाड़ी ने प्लेटफार्म छोड़ दिया। दोनों दीपक और सागर के सामने वाली सीटों पर बैठ गईं।

‘आओ मैं तुम्हारी सबसे जान-पहचान करा दूं...।’ लिली ने दीपक से कहा और बारी-बारी से सबका परिचय देने लगी।

‘सागर और माला को तो तुम जानते ही हो और यह महाशय हैं मिस्टर अनिल। हैं कुछ हंसमुख। हंसी करने में तो कभी....।’

‘अपना लिहाज भी न करूं।’ अनिल ने लिली की बात काटते हुए कहा। इस पर सब हंसने लगे।

‘और यह हैं मेरी सहेलियां, रानी और मधु।’

‘आप सब लोगों से मिलकर मुझे हार्दिक प्रसन्नता हुई। आशा है हम सब लोगों के मिल जाने से हमारी यह यात्रा बहुत मनोरंजक रहेगी।’

‘आपकी वाणी सत्य हो। अनिल बोला, माला सच ही कह रही थी कि आदमी बहुत ही दिलचस्प है।’

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