लोगों की राय

ई-पुस्तकें >> घाट का पत्थर

घाट का पत्थर

गुलशन नन्दा

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :321
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9564

Like this Hindi book 5 पाठकों को प्रिय

239 पाठक हैं

लिली-दुल्हन बनी एक सजे हुए कमरे में फूलों की सेज पर बैठी थी।

‘मानें भी क्यों कर? तुम्हें अनुभव नहीं है। यह काम नौकरों पर नहीं छोड़े जाते। फिर भी यदि तुम चाहो तो अपने ही काम में बहुत उन्नति कर सकते हो। टोकरियां, चटाइयां और ऐसी ही अनेक वस्तुएं जो इस घास से बन सकती हैं, तुम अपने-आप बनवा सकते हो और एक अच्छा-खासा व्यापार खड़ा कर सकते हो।’

‘परंतु यह सब कुछ यहां बैठकर तो होने का नहीं। रुपया चाहिए और पिताजी की आज्ञा। दोनों ही बातें कठिन जान पड़ती हैं।’

‘प्रयत्न करो। मनुष्य क्या नहीं कर सकता। वह चाहे तो पत्थर से पानी निकाल ले और फिर यह तो तुम्हारे पिता है।’

सामान गाड़ी पर बंध चुका था।

‘अच्छा दीपक।’ कंधे पर हाथ रखते हुए सेठ साहब ने कहा, ‘बिछड़ने का समय आ गया। तुम्हें छोड़ने का जी तो नहीं चाहता परंतु लाचारी है। बंबई अवश्य आना। यह लो मेरा पता, जो कुछ बन पड़ा, तुम्हारी सहायता करूंगा।’ श्यामसुंदर अगली सीट पर बैठ गए। शामू ने गाड़ी स्टार्ट कर दी।

‘आशा है शीघ्र ही भेंट होगी।’ दीपक ने सेठ साहब से कहा।

दीपक देर तक खड़ा कार की उड़ती हुई धूल को देखता रहा और जब वह आंखों से ओझल हो गई तो धीरे-धीरे घर लौट पड़ा।

सेठ साहब को गए दो माह से अधिक हो चुके थे। दीपक नित्य खेत में जाता और शाम को रुपयों से भरी थैली लाकर जमींदार साहब के चरणों में रख देता और पुरस्कार स्वरूप शाबाशी और मस्तक पर चुंबन पा लेता।

परंतु वह इस जीवन से ऊब चुका था। वह आवश्यकता से अधिक चिंतित था। वह चाहता था कि कहीं भाग निकले। उसके मन में भविष्य और कर्त्तव्य के बीच एक संघर्ष-सा हो रहा था, परंतु अब वह कर्त्तव्य की बेड़ियों को सदा के लिए तोड़ डालना चाहता था।

एक दिन सवेरे जब वह अपने कमरे में बैठा दूर सड़क पर टकटकी लगाए देख रहा था, जमींदार साहब पूजा के कमरे से निकलकर बैठक की ओर जा रहे थे – उसे इस प्रकार बैठा देख कहने लगे-

‘क्यों बेटा, अभी तक कुल्ला नहीं किया, नहाए नहीं। इतना दिन निकल आया, काम में देर हो रही है, कटी हुई घास बैलगाड़ियों पर लदवानी है...।’

‘आज मैं न जा सकूंगा।’ दीपक ने कुछ फीकेपन से उत्तर दिया।

‘क्यों? तबियत तो ठीक है, कहीं बुखार तो नहीं?’

‘नहीं ऐसी कोई बात नहीं। जी नहीं चाहता।’

‘इसका मतलब?’ जमींदार साहब ने तनिक कठोरता से कहा।

दीपक चुपचाप बैठा रहा।

‘तो यह बात है! कल मुनीमजी ठीक कह रहे थे कि अब यहां से कहीं और जाना चाहते हो।’

‘बंबई।’

‘खुशी से जाओ। तुम्हें रोका किसने है? दिल बहल जाएगा। कुछ दिन जलवायु की तबदीली ही सही।’

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book

A PHP Error was encountered

Severity: Notice

Message: Undefined index: mxx

Filename: partials/footer.php

Line Number: 7

hellothai