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घाट का पत्थर

गुलशन नन्दा

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :321
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9564

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लिली-दुल्हन बनी एक सजे हुए कमरे में फूलों की सेज पर बैठी थी।

‘इसकी क्या आवश्यकता थी!’

‘मैं जानती हूं कि खाने के बाद तुमने फल नहीं खाया।’

‘जब तुम्हें मेरा इतना ध्यान है तो काटकर भी खिला दो।’

‘अवश्य।’ और लिली ने छुरी हाथ में ली। उसने माल्टे काटकर प्लेट में रख दिए और बोली, ‘लो खाओ।’

दीपक ने प्लेट उठाकर उसके आगे बढ़ाते हुए कहा, ‘पहले तुम।’

‘मैं तो अभी खा चुकी हूं।’

‘कोई बात नहीं, मेरा साथ ही सही।’

लिली ने एक टुकड़ा उठाकर चूसना आरंभ कर दिया और फिर दीपक ने भी। दीपक की दृष्टि लिली के मुख पर जमी थी। बड़े प्यार से उसे माल्टे खिला रही थी वह। माल्टे के टुकड़े को चूसते समय दीपक को ऐसा लगता मानों वह लिली के होठों का रस चूस रहा है।

‘लिली, एक बात पूछूं?’ दीपक ने छिलके प्लेट में रखते हुए कहा।

‘पूछो।’

‘तुम्हें सागर पसंद है या मैं?’

‘तुम्हारा मतलब मैं नहीं समझी।’

‘मेरा मतलब? तुम्हें दोनों में से एक को चुनना हो तो किसे चुनोगी?’

‘अभी तो मुझे तुम अच्छे लगते हो, आगे न जाने ऊंट किस करवट बैठता है। परंतु मेरे इन शब्दों का कोई और अर्थ न निकाल लेना।’

‘नहीं, वह तो मैं भली प्रकार समझता हूं। अच्छा अब मैं चलता हूं। देर बहुत हो चुकी है। डैडी न आ जाए।’

‘तो डैडी क्या कहेंगे?’ लिली ने दीपक के हाथ में कैंची बनाकर कहा।

‘यही कि इतनी रात तक तुम यहां क्या कर रहे हो?’

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