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घाट का पत्थर

गुलशन नन्दा

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :321
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9564

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लिली-दुल्हन बनी एक सजे हुए कमरे में फूलों की सेज पर बैठी थी।

‘मैंने इसे कब अस्वीकार किया है?’

‘सच्चा प्रेम तो ऐसा मार्ग अपनाने की आज्ञा नहीं देता।’

‘कैसे?’

‘सच्चे प्रेम में तो त्याग को प्राप्ति से मधुर माना जाता है। त्याग ही सच्चा प्रेम है।’

‘केवल कायरों के लिए।’

‘जो भी हो। अपना-अपना दृष्टिकोण है।’

‘इसका अर्थ यह हुआ कि तुम अंतिम बार प्रयत्न करने आई हो कि शायद हवा का रुख बदल जाए।’

‘नहीं, ऐसी कोई बात नहीं। मेरा निर्णय तो हो चुका।’

‘क्या?’

‘मैं तुम्हारी हूं।’ लिली ने बहुत धीमे स्वर में कहा और वह पलटकर सीधी होकर लेट गई।

दीपक अधीरता से बोला, ‘क्या सच?’

‘उठो ना या यों ही पड़े रहोगे।’ लिली ने दीपक का सिर ऊपर उठाते हुए कहा। दीपक अपना सिर और भी जोर से दबाते हुए बोला, ‘मैं आराम से हूं, मुझे ऐसे ही रहने दो।’

‘देखो, मुझे गुदगुदी-सी हो रही है।’

‘लो, यदि तुम्हें बुरा लगता है तो मैं यहां से उठ जाता हूं।’ यह कहते हुए दीपक उठा परंतु लिली ने जोर से हाथ खींच लिया। यकायक झटका लगने से दीपक अपने को संभाल न पाया और लिली के वक्ष-स्थल पर जा गिरा। लिली ने उसे खींचकर छाती से लगा लिया।

घड़ी ने आठ बजाए तो लिली बोली, ‘दीपक, बहुत देर हो रही है, अब मैं चलती हूं।’

‘यह सुहावनी संध्या कितनी मंगलमयी है लिली, जिसने हम दोनों को फिर से मिला दिया। यह घड़ी हमारे जीवन की सबसे मधुर घड़ी होगी।’

और वह लिली को दरवाजे तक छोड़ने चला। लिली ने पीछे मुड़कर देखा, ‘अरे हां, वे कागज तो दे देते।’

‘उनकी इतनी जल्दी क्या है?’

‘जल्दी तो कोई नहीं। मेरा मतलब था कि डैडी को जब तक वे कागज न मिलेंगे, उन्हें व्यर्थ की चिंता रहेगी।’

‘उसके लिए तुम न घबराओ। मैं उन्हें अपने-आप लौटा दूंगा।’

‘यह दूसरी बात है, यदि तुम मुझ पर विश्वास नहीं तो....।’

‘यह तुम क्या कह रही हो लिली, मेरा मतलब था कि यदि मैं ले जाती तो हम लोगों का आदर डैडी की नजरों में बढ़ जाता!’

तब तो अवश्य ले जाओ। यह कहकर दीपक कमरे के एक कोने की ओर गया। उसने अपना सूटकेस का ताला खोला और एक बड़ा-सा लिफाफा और डिब्बा उठा लिली के हाथ में देते हुए बोला-

‘यह संभाल लो। सावधानी से ले जाना। अब खजाने की ताली तुम्हारे हाथ ही जा रही है। मेरे हाथ तो खाली हो चुके।’

लिली ने दोनों चीजें सावधानी से अपने हाथ में ले ली।

‘देखना, कहीं मुझे पछताना न पड़े!’

‘ऐसा कभी हो सकता है?’

सीढ़िया उतरकर दोनों सड़क पर आ गए। वहां शामू कार लिए खड़ा था। लिली ने कागज जल्दी से कार में फेंक दिए और दरवाजा खोला। पिछली सीट पर सेठ साहब भी बैठे थे। दीपक को आश्चर्य हुआ और बोला, ‘आप भी साथ ही थे क्या?’

‘जी! परंतु इन्होंने ऊपर जाना उचित न समझा।’ लिली ने कहा।

‘क्यों?’

‘इसका उत्तर देने की आवश्यकता नहीं।’ वह अगली सीट पर बैठ गई और शामू से कार चलाने के लिए कहा। लिली के तेवर बदलते देख दीपक ने कहा, ‘अभिनय करना तो बहुत अच्छा जानती हो।’ उसके स्वर में पहले जैसी गरमी थी और वह मुस्करा रहा था।

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