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घाट का पत्थर

गुलशन नन्दा

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :321
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9564

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लिली-दुल्हन बनी एक सजे हुए कमरे में फूलों की सेज पर बैठी थी।

यह कहते हुए दीपक ने जमींदार साहब के पांव छुए। जमींदार साहब ने उठाकर उसे गले लगाया। उनकी आंखों में आंसू थे। उन्हें ऐसा लग रहा था कि जैसे कोई अमूल्य वस्तु उनसे सदा के लिए दूर जा रही हो।

‘अब तुम एक नए जीवन में प्रवेश कर रहे हो। देखना, इस बूढ़े बाप को न भूल जाना।’

‘यह भी संभव है क्या कि मैं आपको भूल जाऊं? मैं कोई सदा के लिए तो जा नहीं रहा हूं, अवसर मिलने पर आपको मिलता ही रहूंगा।’

‘देखो, सेठ श्यामसुंदर का पता ले लिया है न?’

‘जी। वह मेरे पास है।’

‘मेरी ओर से उन्हें बहुत-बहुत पूछना और कहना कि कभी समय मिले तो कुशल-मंगल का पत्र ही लिखते रहा करें।’

‘अच्छा अब आप विश्राम कीजिए, मैं चलता हूं।’

दीपक ने पिता के पांव अंतिम बार छुए और सड़क की ओर चल पड़ा।

‘मुनीमजी, टिकट दूसरे दर्जे का लेना और किसी में जगह न मिलेगी।’

जमींदार साहब की आंखों से आंसू टपक पड़े। वह देर तक ड्योढ़ी में खड़े दीपक को देखते रहे। जब वह आंखों से दूर हो गया तो हवेली में प्रवेश किया, चारों ओर सन्नाटा-सा छा रहा था। एक थके यात्री की भांति, जिसका कोई निर्दिष्ट न हो, वह बरामदे में बिछे तख्त पर जा बैठे।  

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