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गुनाहों का देवता

धर्मवीर भारती

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :614
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9577

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संवेदनशील प्रेमकथा।


बिनती चली गयी। चन्दर लज्जित-सा बैठा था।

“लो, अब तुम्हें भी रुलाई आ रही है क्या?” सुधा ने बहुत दुलार से कहा, “तुम उससे ससुराल का मजाक मत किया करो। वह बहुत दु:खी है और बहुत कदर करती है तुम्हारी। और किसी की मजाक की बात और है। हम या तुम कहते हैं तो उसे लग जाता है।”

“अच्छा, वो कह रही थी, तुम्हारी फोटो उन लोगों ने पसन्द कर ली है”-चन्दर ने बात बदलने के खयाल से कहा।

“और क्या, कोई हमारी शक्ल तुम्हारी तरह है कि लोग नापसन्द कर दें।” सुधा अकड़कर बोली।

“नहीं, सच-सच बताओ?” चन्दर ने पूछा।

“अरे जी,” लापरवाही से मुँह बिचकाकर सुधा बोली, “उनके पसन्द करने से क्या होता है? मैं ब्याह-उआह नहीं करूँगी। तुम इस फेर में न रहना कि हमें निकाल दोगे यहाँ से।”

इतने में बिनती आ गयी। वह भी उदास थी। सुधा उठी और बिनती को पकड़ लायी और ढकेलकर चन्दर के बगल में बिठा दिया।

“लो, चन्दर! अब इसे दुलार कर लो तो अभी गुरगुराने लगे। बिल्ली कहीं की!” सुधा ने उसे हल्की-सी चपत मारकर कहा। बिनती का मुँह अपनी हथेलियों में लेकर अपने मुँह के पास लाकर आँखों में आँख डालकर कहा, “पगली कहीं की, आँसू का खजाना लुटाती फिरती है।”

“चन्दर!” डॉ. शुक्ला ने पुकारा और चन्दर उठकर चला गया।

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