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गुनाहों का देवता

धर्मवीर भारती

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :614
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9577

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संवेदनशील प्रेमकथा।


“नहीं चन्दर, अब बुरा-भला मानने के दिन बीत गये। अब गैरों की बात का भी बुरा-भला नहीं मान पाऊँगी, फिर घर के लोगों की बातों का बुरा-भला क्या...छोड़ो ये सब बातें। ये क्या निमंत्रण-पत्र छपा है, देखें!”

चन्दर ने एक निमंत्रण-पत्र उठाया, उसे लिफाफे में भरकर उस पर सुधा का नाम लिखकर कहा, “लो, हमारी सुधा का ब्याह है, आइएगा जरूर!”

सुधा ने निमंत्रण पत्र ले लिया-”अच्छा!” एक फीकी हँसी हँसकर बोली, “अच्छा, अगर हमारे पतिदेव ने आज्ञा दे दी तो आऊँगी आपके यहाँ। उनका भी नाम लिख दीजिए वरना बुरा न मान जाएँ।” और सुधा उठ खड़ी हुई।

“कहाँ चली?” चन्दर ने पूछा।

“यहाँ बहुत रोशनी है! मुझे अपना अँधेरा कमरा ही अच्छा लगता है।” सुधा बोली।

“चलो बिनती, वहीं कार्ड ले चलो!” चन्दर ने कहा, “आओ सुधा, आज कार्ड लिखते जाएँगे, तुमसे बात करते जाएँगे। जिंदगी देखो, सुधी! आज पन्द्रह दिन से तुमसे दो मिनट बैठकर बात भी न कर सके।”

“अब क्या करना है, चन्दर! जैसा कह रहे हो वैसा कर तो रही हूँ। अभी कुछ और बाकी है क्या? बता दो वह भी कर डालूँ। अब तो रो-पीटकर ऊँचा बनना ही है।”

बिनती ने कार्ड समेटे तो सुधा डाँटकर बोली-”रख इसे यहीं; चली उठा के! बड़ी चन्दर की आज्ञाकारी बनी है। ये भी हमारी जान की गाहक हो गयी अब! हमारे कमरे में लायी ये सब, तो टाँग तोड़ दूँगी! पाजी कहीं की!”

बिनती ने कार्ड धर दिये। नौकर ने आकर कहा, “बाबूजी, कुम्हार अपना हिसाब माँगता है!”

“अच्छा, अभी आया, सुधा!” और चन्दर चला गया।

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