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गुनाहों का देवता

धर्मवीर भारती

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :614
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9577

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संवेदनशील प्रेमकथा।


“आप लड़की होते तो समझते, चन्दर बाबू!” बिनती बोली और जाकर एक तश्तरी में नाश्ता ले आयी, “लो, दीदी कह गयी थीं कि चन्दर के खाने-पीने का खयाल रखना लेकिन यह किसको मालूम था कि दीदी के जाते ही चन्दर गैर हो जाएँगे।”

“नहीं बिनती, तुम गलत समझ रही हो। जाने क्यों एक अजीब-सी खिन्नता मन में आ गयी थी। कुछ करने की तबीयत ही नहीं होती थी। आज कुछ तबीयत ठीक हुई तो सबसे पहले तुम्हारे ही पास आया। बिनती! अब सुधा के बाद मेरा है ही कौन, सिवा तुम्हारे?” चन्दर ने बहुत उदास स्वर में कहा।

“तभी न! उस दिन मैं बुलाती रह गयी और आप यह गये, वह गये और आँख से ओझल! मैंने तो उसी दिन समझ लिया था कि अब पुराने चन्दर बाबू बदल गये।” बिनती ने रोते हुए कहा।

चन्दर का मन भर आया था, गले में आँसू अटक रहे थे लेकिन आदमी की जिंदगी भी कैसी अजब होती है। वह रो भी नहीं सकता था, माथे पर दुख की रेखा भी झलकने नहीं दे सकता था, इसलिए कि सामने कोई ऐसा था, जो खुद दुखी था और सुधा की थाती होने के नाते बिनती को समझाना उसका पहला कर्तव्य था। बिनती के आँसू रोकने के लिए वह खुद अपने आँसू पी गया और बिनती से बोला, “लो, कुछ तुम भी खाओ।” बिनती ने मना किया तो उसने अपने हाथ से बिनती को खिला दिया। बिनती चुपचाप खाती रही और रह-रहकर आँसू पोंछती रही।

इतने में महराजिन आयी। बिनती ने चौके के काम समझा दिये और चन्दर से बोली, “चलिए, ऊपर चलें।” चन्दर ने चारों ओर देखा। घर का सन्नाटा वैसा ही था। सहसा उसके मन में एक अजीब-सी बात आयी। सुधा के साथ कभी भी कहीं भी वह जा सकता था, लेकिन बिनती के साथ छत पर अकेले जाने में क्यों उसके अन्त:करण ने गवाही नहीं दी। वह चुपचाप बैठा रहा। बिनती कुछ भी हो, कितनी ही समीप क्यों न हो, बिनती सुधा नहीं थी, सुधा नहीं हो सकती थी। “नहीं, यहीं ठीक है।” चन्दर बोला।

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