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गुनाहों का देवता

धर्मवीर भारती

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :614
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9577

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संवेदनशील प्रेमकथा।


“बिनती की शादी!” डॉक्टर साहब ने सिर झुकाये हुए, टहलते हुए एक बड़ी फीकी हँसी हँसकर कहा, “बिनती और तुम्हारी बुआजी दोनों अन्दर हैं।”

“अन्दर हैं!” चन्दर को यह रहस्य कुछ समझ में ही नहीं आता था। “इतनी जल्दी बिनती लौट आयी?”

“बिनती गयी ही कहाँ?” डॉक्टर साहब ने बहुत चुपचाप सिर झुका कर कहा और बहुत करुण उदासी उनके मुँह पर छा गयी। वह बेचैनी से बरामदे में टहलने लगे। चन्दर का साहस नहीं हुआ कुछ पूछने का। कुछ अमंगल अवश्य हुआ है।

वह अन्दर गया। बुआजी अपनी कोठरी में सामान रख रही थीं और बिनती बैठी सिल पर उरद की भीगी दाल पीस रही थी! बिनती ने चन्दर को देखा, दाल में सने हुए हाथ जोड़कर प्रणाम किया, सिर को आँचल से ढँककर चुपचाप दाल पीसने लगी, कुछ बोली नहीं। चन्दर ने प्रणाम किया और जाकर बुआ के पैर छू लिये।

“अरे चन्दर है, आओ बेटवा, हम तो लुट गये!” और बुआ वहीं देहरी पर सिर थामकर बैठ गयीं।

“क्या हुआ, बुआजी?”

“होता का भइया! जौन बदा रहा भाग में ओ ही भवा।” और बुआ अपनी धोती से आँसू पोंछकर बोलीं, “ईं हमरी छाती पर मूँग दरै के लिए बदी रही तौन जमी है। भगवान कौनों को ऐसी कलंकिनी बिटिया न दे। तीन भाँवरी के बाद बारात उठ गयी, भइया! हमारा तो कुल डूब गया।” और बुआजी ने उच्च स्वर में रुदन शुरू किया। बिनती ने चुपचाप हाथ धोये और उठकर छत पर चली गयी।

“चुप रहो हो। अब रोय-रोय के काहे जिउ हल्कान करत हउ। गुनवन्ती बिटिया बाय, हज्जारन आय के बिटिया के लिए गोड़े गिरिहैं। अपना एकान्त होई के बैठो!” महराजिन ने पूड़ी उतारते हुए कहा।

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