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गुनाहों का देवता

धर्मवीर भारती

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :614
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9577

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संवेदनशील प्रेमकथा।


कमरे की दीवारों ने दोहराया-”पापी! पतित!”

चन्दर तड़प उठा, पागल-सा हो उठा। कंघा फेंककर बोला, “कौन है पापी? मैं हूँ पापी? मैं हूँ पतित? मुझे तुम नहीं समझते। मैं चिर-पवित्र हूँ। मुझे कोई नहीं जानता।”

“कोई नहीं जानता! हा, हा!” प्रतिबिम्ब हँसा, “मैं तुम्हारी नस-नस जानता हूँ। तुम वही हो न जिसने आज से डेढ़ साल पहले सपना देखा सुधा के हाथ से लेकर अमृत बाँटने का, दुनिया को नया सन्देश देकर पैगम्बर बनने का। नया सन्देश! खूब नया सन्देश दिया मसीहा! पम्मी...बिनती...सुधा...कुछ और छोकरियाँ बटोर ले। चरित्रहीन!”

“मैंने किसी को नहीं बटोरा! जो मेरी जिंदगी में आया, अपने-आप आया, जो चला गया, उसे मैंने रोका नहीं। मेरे मन में कहीं भी अहम की प्यास नहीं थी, कभी भी स्वार्थ नहीं था। क्या मैं चाहता तो सुधा को अपने एक इशारे से अपनी बाँहों में नहीं बाँध सकता था!”

“शाबाश! और नहीं बाँध पाये तो सुधा से भी जी भरकर बदला निकाल रहा है। वह मर रही है और तू उस पर नमक छिड़कने से बाज नहीं आया। और आज तो उसे एकान्त में भ्रष्ट करने का सपना देख अपनी पलकों को देवमन्दिर की तरह पवित्र बना लिया तूने! कितनी उन्नति की है तेरी आत्मा ने! इधर आ, तेरा हाथ चूम लूँ।”

“चुप रहो! पराजय की इस वेला में कोई भी व्यंग्य करने से बाज नहीं आता। मैं पागल हो जाऊँगा।”

“और अभी क्या पागलों से कम है तू? अहंकारी पशु! तू बर्टी से भी गया-गुजरा है। बर्टी पागल था, लेकिन पागल कुत्तों की तरह काटना नहीं जानता था। तू काटना भी जानता है और अपने भयानक पागलपन को साधना और त्याग भी साबित करता रहता है। दम्भी!”

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