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गुनाहों का देवता

धर्मवीर भारती

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :614
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9577

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संवेदनशील प्रेमकथा।


गेसू मुड़ते हुए बोली।

“अरे बैठो भी।” सुधा ने गेसू की ओढऩी पकडक़र उसे खींचकर बिठलाते हुए कहा, “अभी आये हो, बैठे हो, दामन सँभाला है।”

“आहा। अब तो तू भी उर्दू शायरी कहने लगी।” गेसू ने बैठते हुए कहा।

“तेरा ही मर्ज लग गया।” सुधा ने हँसकर कहा।

“देख कहीं और भी मर्ज न लग जाए, वरना फिर तेरे लिए भी इन्तजाम करना होगा!” गेसू ने पलंग पर लेटते हुए कहा।

“अरे ये वो गुड़ नहीं कि चींटे खाएँ।”

“देखूँगी, और देखूँगी क्या, देख रही हूँ। इधर पिछले दो साल से कितनी बदल गयी है तू। पहले कितना हँसती-बोलती थी, कितनी लड़ती-झगड़ती थी और अब कितना हँसने-बोलने पर भी गुमसुम हो गयी है तू। और वैसे हमेशा हँसती रहे चाहे लेकिन जाने किस खयाल में डूबी रहती है हमेशा।” गेसू ने सुधा की ओर देखते हुए कहा।

“धत् पगली कहीं की।” सुधा ने गेसू के एक हल्की-सी चपत मारकर कहा, “यह सब तेरे अपने खयाली-पुलाव हैं। मैं किसी के ध्यान में डूबूँगी, ये हमारे गुरु ने नहीं सिखाया।”

“गुरु तो किसी के नहीं सिखाते सुधा रानी, बिल्कुल सच-सच, क्या कभी तुम्हारे मन में किसी के लिए मोहब्बत नहीं जागी?” गेसू ने बहुत गम्भीरता से पूछा।

“देख गेसू, तुझसे मैंने आज तक तो कभी कुछ नहीं छिपाया, न शायद कभी छिपाऊँगी। अगर कभी कोई बात होती तो तुझसे छिपी न रहती और रहा मुहब्बत का, तो सच पूछ तो मैंने जो कुछ कहानियों में पढ़ा है कि किसी को देखकर मैं रोने लगूँ, गाने लगूँ, पागल हो जाऊँ यह सब कभी मुझे नहीं हुआ। और रहीं कविताएँ तो उनमें की बातें मुझे बहुत अच्छी लगती हैं। कीट्स की कविताएँ पढक़र ऐसा लगा है अक्सर कि मेरी नसों का कतरा-कतरा आँसू बनकर छलकने वाला है। लेकिन वह महज कविता का असर होता है।”

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