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गुनाहों का देवता

धर्मवीर भारती

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :614
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9577

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संवेदनशील प्रेमकथा।


“जी, आपने मुझसे कुछ कहा?” चन्दर ने पूछा।

“नहीं, क्या मैंने कुछ कहा था? ओह! मैं सपना देख रहा था कै बज गये?”

“साढ़े पाँच।”

“अरे बिल्कुल शाम हो गयी!” डॉक्टर साहब ने बाहर देखकर कहा-”अब रहने दो कपूर, आज काफी काम किया है तुमने। चाय मँगवाओ। सुधा कहाँ है?”

“पढ़ रही है। आज से उसके मास्टर साहब आने लगे हैं।”

“अच्छा-अच्छा, जाओ उन्हें भी बुला लाओ, और चाय भी मँगवा लो। उसे भी बुला लो-सुधा को।”

चन्दर जब ड्राइंग रूम में पहुँचा तो देखा सुधा किताबें समेट रही है और बिसरिया जा चुका है। उसने सुधा से कहना चाहा लेकिन सुधा का मुँह देखते ही उसने अनुमान किया कि सुधा लड़ने के मूड में है, अत: वह स्वयं ही जाकर महराजिन से कह आया कि तीन प्याला चाय पढ़ने के कमरे में भेज दो। जब वह लौटने लगा तो खुद सुधा ही उसके रास्ते में खड़ी हो गयी और धमकी के स्वर में बोली-”अगर कल से साथ नहीं बैठोगे तुम, तो हम नहीं पढ़ेंगे।”

“हम साथ नहीं बैठ सकते, चाहे तुम पढ़ो या न पढ़ो।” चन्दर ने ठंडे स्वर में कहा और आगे बढ़ा।

“तो फिर हम नहीं पढ़ेंगे।” सुधा ने जोर से कहा।

“क्या बात है? क्यों लड़ रहे हो तुम लोग?” डॉ. शुक्ला अपने कमरे से बोले। चन्दर कमरे में जाकर बोला, “कुछ नहीं, ये कह रही हैं कि...”

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