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गुनाहों का देवता

धर्मवीर भारती

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :614
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9577

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संवेदनशील प्रेमकथा।


पूरब के आसमान की गुलाबी पाँखुरियाँ बिखरने लगी थीं और सुनहले पराग की एक बौछार सुबह के ताजे फूलों पर बिछ रही थी। “अरे सुबह हो गयी?” उसने चौंककर कहा और पास की एक बेंच पर बैठ गया। सामने से एक माली आ रहा था। “क्यों जी, लाइब्रेरी खुल गयी?” “अभी नहीं बाबूजी!” उसने जवाब दिया। वह फिर सन्तोष से बैठ गया और फूलों की पाँखुरियाँ नोचकर नीचे फेंकने लगा। जमीन पर बिछाने वाली सोने की चादर परतों पर परतें बिछाती जा रही थी और पेड़ों की छायाओं का रंग गहराने लगा था। उसकी बेंच के नीचे फूलों की चुनी हुई पत्तियाँ बिखरी थीं और अब उसके पास सिर्फ एक फूल बाकी रह गया था। हलके फालसई रंग के उस फूल पर गहरे बैंजनी डोरे थे।

“हलो कपूर!” सहसा किसी ने पीछे से कन्धे पर हाथ रखकर कहा, “यहाँ क्या झक मार रहे हो सुबह-सुबह?”

उसने मुडक़र पीछे देखा, “आओ, ठाकुर साहब! आओ बैठो यार, लाइब्रेरी खुलने का इन्तजार कर रहा हूँ।”

“क्यों, यूनिवर्सिटी लाइब्रेरी चाट डाली, अब इसे तो शरीफ लोगों के लिए छोड़ दो!”

“हाँ, हाँ, शरीफ लोगों ही के लिए छोड़ रहा हूँ; डॉक्टर शुक्ला की लड़की है न, वह इसकी मेम्बर बनना चाहती थी तो मुझे आना पड़ा, उसी का इन्तजार भी कर रहा हूँ।”

“डॉक्टर शुक्ला तो पॉलिटिक्स डिपार्टमेंट में हैं?”

“नहीं, गवर्नमेंट साइकोलॉजिकल ब्यूरो में।”

“और तुम पॉलिटिक्स में रिसर्च कर रहे हो?”

“नहीं, इकनॉमिक्स में!”

“बहुत अच्छे! तो उनकी लड़की को सदस्य बनवाने आये हो?” कुछ अजब स्वर में ठाकुर ने कहा।

“छिः!” कपूर ने हँसते हुए, कुछ अपने को बचाते हुए कहा, “यार, तुम जानते हो कि मेरा उनसे कितना घरेलू सम्बन्ध है। जब से मैं प्रयाग में हूँ, उन्हीं के सहारे हूँ और आजकल तो उन्हीं के यहाँ पढ़ता-लिखता भी हूँ...।”

ठाकुर साहब हँस पड़े, “अरे भाई, मैं डॉक्टर शुक्ला को जानता नहीं क्या? उनका-सा भला आदमी मिलना मुश्किल है। तुम सफाई व्यर्थ में दे रहे हो।”

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