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ज्ञानयोग
ज्ञानयोग
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स्वानीजी के ज्ञानयोग पर अमेरिका में दिये गये प्रवचन
जब सभी कर्मफलों का त्याग किया जाता है, प्रभु को अर्पित किया जाता है, तब किसी कर्म में बन्धन की शक्ति नहीं रह जाती। ज्ञानी अत्यंत बुद्धिवादी होता है, वह हर वस्तु अस्वीकार कर देता है। वह दिन-रात अपने से कहता है, ''कोई आस्था नहीं है, कोई पवित्र शब्द नहीं है, स्वर्ग नहीं, धर्म नहीं, नरक नहीं, सम्प्रदाय नहीं, केवल आत्मा है।'' सब कुछ निकाल देने पर जो नहीं छोड़ा जा सकता, वहाँ जब मनुष्य पहुँच जाता है तो केवल आत्मा रह जाती है।
ज्ञानी किसी बात को स्वयंसिद्ध नहीं मानता; वह शुद्ध विवेक और इच्छा-शक्ति द्वारा विश्लेषण करता रहता है। और अन्तत: निर्वाण तक पहुँच जाता है, जो समस्त सापेक्षिकता की समाप्ति है। इस अवस्था का वर्णन या कल्पना मात्र तक सम्भव नहीं है। ज्ञान को कभी किसी पार्थिव फल से जाँचा नहीं जा सकता।
उस गृध्र के समान न बनो, जो दृष्टि से परे उड़ता है, किन्तु जो सड़े मांस के एक टुकड़े को देखते ही नीचे झपटने को तैयार रहता है।
शरीर स्वस्थ होने तथा दीर्घ जीवन या समृद्धि की कामना न करो; केवल मुक्त होने की इच्छा करो। हम हैं सच्चिदानन्द। सत्ता विश्व का अन्तिम सामान्यीकरण है; अत: हमारा अस्तित्व है, हम यह जानते हैं, और आनन्द अमिश्रित सत्ता का स्वाभाविक परिणाम है। जब हम आनन्द के सिवा न तो कुछ माँगते हैं, न कुछ देते और न कुछ जानते हैं, तब कभी-कभी हमें परमानन्द का एक कण मिल जाता है। किन्तु वह आनन्द फिर चला जाता है और हम विश्व के दृश्य को अपने समक्ष चलते हुए देखते हैं और हम जानते हैं कि 'वह उस ईश्वर पर किया हुआ एक पच्चीकारी का काम है जो सभी वस्तुओं की पृष्ठभूमि है।' (ज्ञान के बाद) जब हम पृथ्वी पर पुन: लौटते हैं और निरपेक्ष परम को सापेक्ष रूप में देखते हैं, तब हम सच्चिदानन्द को ही त्रिमूर्ति - पिता, पुत्र, और पवित्र आत्मा के रूप में देखते हैं।
सत् = सर्जक तत्व; चित् = परिचालक तत्व; आनन्द = साक्षात्कारी तत्त्व जो हमें फिर उसी एकत्व के साथ सम्बद्ध करता है।
कोई भी सत् को ज्ञान (चित्) के अतिरिक्त अन्य उपाय से नहीं जान सकता। तभी ईसा के इस कथन की गम्भीरता समझ में आती है - 'पुत्र के सिवाय कोई परम पिता को नहीं देख सकता।'
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