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जलती चट्टान

गुलशन नन्दा

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :251
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9579

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‘उसका अपना विश्वास है। फिर भगवान का द्वार तो हर मनुष्य के लिए खुला है और मंदिर के पट तो तुम्हारे बाबा ने ही अछूतों के लिए खोले थे।’

‘हाँ काका, यदि उन्हें अछूतों से घृणा होती, तो वह राजन को अपने घर रखते ही क्यों?’

‘हाँ!’ काका कुछ दबे स्वर में बोले।

‘वास्तव में हमें दूर करने के लिए भगवान नहीं बल्कि इंसान है, यह समाज है और उसके बनाए हुए नियम।’

‘पार्वती! संसार को चलाने के लिए इन सामाजिक रीति-रिवाजों का होना आवश्यक है, हमें इनको मानना पड़ेगा।’

‘परंतु मनुष्य इन्हें तोड़ भी तो सकता।’

‘हाँ, यदि तोड़ने से उसकी भलाई हो तो...।’

‘मेरी तथा राजन की भलाई तो इसी में है – हमें औरों से क्या?’

‘तुम भूल रही हो – हम इस संसार में अकेले नहीं जी सकते – न ही दूसरों का सहारा लिए बिना आगे बढ़ सकते हैं।’

‘हमें किसी का सहारा नहीं चाहिए?’

‘तो जानती हो इसका परिणाम?’

‘क्या?’

‘राजन का अंत।’

‘नहीं काका।’ पार्वती चीख उठी।

‘यह कंपनी से निकाल दिया जाएगा। हरीश उसे घृणा की दृष्टि से देखेगा। पढ़ा-लिखा तो है नहीं, दर-दर की ठोकरें खाता फिरेगा और बूढ़ी माँ के लिए किसी दिन संसार से चल बसेगा।’

‘ऐसा न कहो काका।’

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