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जलती चट्टान

गुलशन नन्दा

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :251
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9579

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अचानक उसे माँ की आवाज सुनाई दी और फिर नीरवता छा गई। दो-चार कदम चलकर राजन के पाँव रुक गए और उसके कान माँ की आवाज पर लग गए।

‘माँ लौट गई क्या?’

उसका दिल न माना और वह घूमकर अंधेरे में माँ को खोजने लगा। बर्फ की सफेदी दूर-दूर तक दिखाई दे रही थी परंतु माँ का कोई चिह्न न था। दो-चार कदम वापस चलकर उसने ध्यानपूर्वक देखा तो आने वाली राह पर एक स्थान पर बर्फ के बड़े-बड़े टुकड़े गिरकर ढेर सा बना रहे थे। वह भय से चीख पड़ा और उस ओर लपका।

उसके हाथ तेजी से बर्फ उठाकर किनारे फेंक रहे थे। जब बर्फ हटाकर उसने माँ को बाहर निकाला तो उनका शरीर बर्फ के समान ठंडा हो रहा था। उसने माँ को हाथों से उठा लिया और उन्हीं कदमों अपने घर लौट आया। आग अब तक जल रही थी। उसने शरीर को गर्मी पहुँचाने के लिए माँ को आग के समीप लिटा दिया और उसके हाथ अपने हाथों से मलने लगा। उसने एक-दो बार माँ को पुकारा भी, परंतु वह खामोश थी। जब काफी देर तक शरीर में गर्मी न आई तो वह डरा और एकटक माँ की आँखों में देखने लगा – वे पथरा चुकी थीं। फिर अपने कान उसके दिल के समीप ले गया और ‘माँ - माँ’ पुकार उठा।

माँ तो सदा के लिए जा चुकी थी, उसके तेज साँस सदा के लिए विदा हो चुके थे। कमरे की दीवारों से टकराकर यह शब्द गूँज रहे थे।

‘तुम्हारा प्रेम एक धोखा है – एक भूख जो तुम्हें जानवर बनने को विवश कर रहा है। लगन आत्मा से होती है इस नश्वर शरीर से नहीं।’

वह माँ के मृत शरीर से लिपटकर रोने लगा।

जब रात्रि के अंधियारे में वह बर्फ के सफेद फर्श पर अपनी माँ की चिता लगा रहा था – तब सारी ‘वादी’ रंगरेलियों में मग्न थी। बारात के बाजे बज रहे थे और नीले आकाश पर उसके दिल के टुकड़े रंगीन सितारों के रूप में बिखर रहे थे। उसकी आँखों में आँसुओं की धारा बह रही थी। आज भी उसके हर संकट में दुःख बटाने वाला कुंदन उसका हाथ बटा रहा था। वह कभी राजन को और कभी उस जगमगाते घर की ओर देखता – जहाँ पार्वती की शादी हो रही थी।

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