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जलती चट्टान

गुलशन नन्दा

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :251
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9579

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‘क्या सोच रही थी – अपनी भाभी से भी न कहोगी?’

‘मैं सोच रही थी भाभी! कल जब मेरी शादी होगी तो क्या मेरी ससुराल वाले भी यूँ ही प्रशंसा करेंगे?’

‘क्यों नहीं.... और जरा मौका आने दो – तुम्हारे भैया से कह तुम्हारी शादी शीघ्र ही करवा दूँगी।’

‘भाभी, अभी से भैया का रौब देने लगी हो।’ और वह खिलखिलाकर हँस पड़ी। पार्वती लजा सी गई। कंचन उसका मुँह ऊपर उठाती हुई बोली - ‘हाँ भाभी अब भैया पर तुम्हारा ही अधिकार है – हम सब तो सेवक हैं – कहो क्या आज्ञा है?’

इतने में मौसी की भारी-सी आवाज ने कंचन को पुकारा। कोई पार्वती के मुख की चाँद से उपमा दे रहा था और कोई और – वह जाने को उठी – पार्वती ने उसका हाथ पकड़ लिया और बोली - ‘हमारी आज्ञा न सुनोगी?’

‘कहो भाभी।’

‘तुम मत जाओ – आज हम दोनों इकट्ठी सोएंगी।’

‘क्यों?’

‘अकेले में भय लगता है।’

‘इस अंधेरी रात से या भइया से।’

फिर वह मुँह में उंगलियाँ दबा के शरारत भरी हँसी हँसने लगी। पार्वती लजा-सी गई – मौसी की पुकार फिर सुनाई दी और कंचन भागती हुई नीचे उतर गई।

सीढ़ियों पर किसी के पैरों की आहट हुई – पार्वती ने अपने आप को समेटकर घूँघट से छिपा लिया। हर स्वर पर उसका दिल काँप उठता था। ज्यों-ज्यों पैरों की आहट समीप होती गई, वह अपने शरीर को सिकोड़ती गई। अचानक छत की बत्ती बुझ गई। उसके साथ ही कोने की मेज पर रखा ‘लैम्प’ प्रकाशित हो गया। पार्वती की जान में जान आई और मस्तिष्क पर रुकी पसीने की बूँदे बह पड़ी।

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