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जलती चट्टान

गुलशन नन्दा

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :251
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9579

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‘तो अब कौन आया था।’

‘माधो काका।’

माधो का नाम सुन हरीश हँस पड़ा और बोला -‘वह भी तो किसी भूत से कम नहीं – क्या कहता था?’

‘आपको पूछ रहा था, शायद कोई काम हो।’

हरीश ने अपना बायाँ हाथ पार्वती की कमर में डाला और दायें हाथ से उसकी ठोड़ी अपनी ओर करते हुए बोला -

‘वह तो होते ही रहते हैं – छोड़ों इन बातों को।’ और फिर दोनों धीरे-धीरे बाहर आ जंगले पर खड़े हो गए।

मंदिर में पूजा के घंटे बजने लगे। पार्वती के दिल में भी उथल-पुथल मची हुई थी। जब हरीश की आवाज उसने सुनी तो चौंक उठी।

‘तुम्हें तो बीचे दिनों की याद आ रही होगी?’

‘जी’– उसने मदहोशी में उत्तर दिया।

‘तुम भी तो कभी हर साँझ देवता की पूजा को जाती थीं।’

‘वह तो मेरा एक नियम था।’

‘तो उसे तोड़ा क्यों?’

‘आपसे किसने कहा – मैं तो अब भी पूजा करती हूँ।’

‘कब?’

‘हर समय, हर घड़ी - मेरे देवता तो मेरे सामने खड़े होते हैं।’

‘तो तुम मेरी पूजा करती हो – न फूल, न जोत, न घंटियाँ।’

‘जब दिल किसी की पूजा कर रहा हो तो ये फूल, यह जोत, यह घंटियाँ सब बेकार हैं।’

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