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जलती चट्टान

गुलशन नन्दा

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :251
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9579

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हिन्दी फिल्मों के लिए लिखने वाले लोकप्रिय लेखक की एक और रचना

‘बचपन? तो क्या यौवनावस्था खेलने की नहीं।’

‘तो यौवन में भी खेला जाता है?’

‘क्यों नहीं, परंतु दोनों में भेद है।’

‘कैसा भेद?’

‘यही कि बचपन में मनुष्य अपने हाथों से मिट्टी के घर बनाता है और खेलने के पश्चात् अपनी ठोकर से उसे तोड़-फोड़ देता है परंतु युवावस्था के खेलों में मिट्टी के एक-एक कण को बचाने के लिए अपने जीवन की बाजी लगा देनी होती है। यदि फिर से वह टूट जाए तो उसकी आँखों की नींद मिट जाती है। बिस्तर पर पड़ा छटपटाता रहता है। जीवन की वह निराशा आँखों की राह आँसू बनकर बह नकलती है।’

‘यह तो कवियों की बात है। यौवन का एक-एक पल अमूल्य होता है। इसे खेल-कूद में खो दिया तो आयु-भर पछताना पड़ेगा। बाबा कहते हैं – बचपन खेल-कूद और यौवन पूजा-पाठ में बिताना चाहिए।’

‘और बुढ़ापा खाट पर।’ राजन ने पार्वती की बात पूरी करते हुए कहा। इस पर दोनों हँस पड़े। राजन फिर बोला -

‘परंतु मैं तुम्हारे बाबा की बातों में विश्वास नहीं करता।’

‘कल के बच्चे हो! तुम भला बाबा की बातें क्या समझो।’

‘तुम तो समझती हो?’

‘क्यों नहीं, तुमसे अधिक। यह सब बाबा ने ही तो सिखाया है – समय पर उठना, समय पर सोना, पूजा-पाठ, घर का काम-काज...।’

‘और कभी-कभी मुझसे बातें करना।’

‘हाँ, परंतु वह तो बाबा ने नहीं सिखाया।’

‘स्वयं ही सीख गईं न। इसी प्रकार बढ़ती यौवनावस्था में कई ऐसी बातें हैं जो कोई नहीं सिखाता, बल्कि मनुष्य स्वयं ही सीख जाता है।’

‘तो क्या मुझे और कुछ भी सीखना है?’

‘बहुत कुछ।’

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