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जलती चट्टान

गुलशन नन्दा

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :251
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9579

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‘मुझे स्वीकार है।’

और राजन ने मुख फेर लिया – उसने गुनगुनाना शुरु कर दिया – पार्वती कुछ क्षण तो चुपचाप खड़ी रही, फिर धीरे-धीरे पग रखते हुए नदी के बाहर जा पहुँची और वस्त्र उठा शीघ्रता से पत्थरों के पीछे हो ली। भीगे वस्त्र उतार साड़ी पहन ली। राजन अब तक मुँह फेरे मजे से गुनगुनाता जा रहा था और पार्वती की पुकार की प्रतीक्षा कर रहा था। थोड़ी देर बाद उसने पार्वती को आवाज दी- उत्तर मिला ‘अभी नहीं’

कुछ देर चुपचाप रहने के पश्चात् राजन ने फिर कहा - ‘मैं तो शीतल जल में अकड़ा जा रहा हूँ और तुमने अभी तक कपड़े भी नहीं बदले।’

पार्वती ने फिर भी कोई उत्तर नहीं दिया, पल भर की चुप्पी के पश्चात् राजन ने फिर पुकारा - ‘पार्वती!’ और तुरंत ही मुँह फेर कर देखा – पार्वती शीघ्रता से लौटी जा रही थी।

राजन यह देखते ही आग-बबूला हो गया और जल से बाहर निकल पार्वती के पीछे हो लिया। शीघ्र ही उसके समीप पहुँचकर क्रोध में बोला - ‘तो क्या किसी के विश्वास को यों ही तोड़ा जाता है?’

‘तुम्हें विश्वास की पड़ी है और वहाँ बाबा मुझे गाली दे रहे होंगे।’ इतना कहकर पार्वती फिर तेजी से बढ़ने लगी।

‘तो झूठ क्यों बोला था?’

‘अपनी जान छुड़ाने के लिए।’

‘तो मुझे यह पता न था कि तुम मुझे एक पागल समझती हो। ठीक है.... मुझे तुम्हें रोकने का अधिकार ही क्या है?’ यह कहकर राजन उन्हीं पैरों से नदी की ओर लौट गया। पार्वती ने रुके शब्दों में उसे पुकारा भी। परंतु उसने सुनी-अनसुनी कर दी और न पीछे घूमकर ही देखा।

जब वह पहले स्थान पर पहुँचा तो नदी की लहरें उसी प्रकार उतनी भरती जा रही थीं क्योंकि उनसे खिलवाड़ करने वाला संगी तो जा चुका था।

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