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जलती चट्टान

गुलशन नन्दा

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :251
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9579

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हिन्दी फिल्मों के लिए लिखने वाले लोकप्रिय लेखक की एक और रचना

‘मुझे?’

‘हाँ – यही कहने तो आया था।’

‘तो इसलिए हाल पूछा जा रहा था।’

‘राजन हम एक ही समय में दो काम कर लिया करते हैं। तुम्हारी तरह नहीं – काम यहाँ हो रहा है और मन नदी के किनारे – फिर दोनों के दोनों अधूरे।’

इस पर दोनों खिलाखिलाकर हँसने लगे। कुंदन हाथ मलता ड्यूटी पर चला गया और राजन मैनेजर के कमरे की ओर।

जब वह मैनेजर के कमरे से बाहर निकला तो बहुत प्रसन्न था। उसके हाथ में एक बड़ा-सा पार्सल था जिसमें उसका प्यार ‘मिंटो वायलन’ था। पहले तो हरीश ने उसे फिजूलखर्ची पर डाँटना चाहा – परंतु यह सोचकर कि शौक का कोई मूल्य नहीं, मौन हो गया। एक युवक शायद दूसरे युवक के दिल को शीघ्र ही पहचान गया था।

छुट्टी होने में शायद अभी एक घंटा बाकी था। कब छुट्टी हो और वह पार्वती के पास पहुँचे। उसे विश्वास था कि यह ‘मिंटो वायलन’ देख प्रसन्नता से उछल पड़ेगी और जब वह उसे बजाएगा तो वह उस धुन पर नाच उठेगी।

इन्हीं विचारों में खोया-खोया काम कर रहा था कि मैनेजर व माधो वहाँ आ पहुँचे। राजन ने दोनों को नमस्कार किया। मैनेजर राजन के समीप होकर बोला –

‘राजन आज छुट्टी जरा देर से होगी।’

राजन के सिर पर मानों कोई वज्र गिर पड़ा हो। उसके चेहरे का रंग फीका पड़ा गया। फटी दृष्टि से हरीश को देखने लगा। राजन को यों देख दोनों आश्चर्य में पड़ गए। फिर माधो बोला -

‘क्यों राजन्! तबियत तो ठीक है?’

तबियत...! वह संभलकर बोला - ‘हाँ...हाँ ठीक है। कुछ और ही सोच रहा था।’

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