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जलती चट्टान

गुलशन नन्दा

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :251
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9579

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‘इसमें मजाक कैसा?’ क्या तुम्हें लैंप की कोई आवश्यकता ही नहीं?

‘बिल्कुल नहीं, मैं तो उजाले की अपेक्षा अंधेरे को अधिक चाहता हूँ।’

‘वह क्यों?’

‘इसलिए कि चाँद हम दोनों को साथ देखकर जलता है।’

‘और अंधेरा....?’

‘हमें यूँ देखकर अपनी काली चादर में हमें छिपा लेता है, ताकि किसी की बुरी दृष्टि हम दोनों पर न पड़ जाए।’

‘फिर भी चाँदनी अंधेरे से अच्छी है।’

‘सो कैसे?’

‘अंधेरे में मनुष्य जलता है, परंतु चाँदनी सदा ही शीतलता और चैन पहुँचाती है।’

‘जलन मनुष्य को ऊपर उठाने में सहारा देती है। परंतु ठंडक तथा चैन मनुष्य को कायर बनाते हैं।’

‘तो फिर खूब जलो, तुम्हें भी ऊपर उठने का अवसर मिल जाएगा।’

‘और तुम...?’

‘हम कायर और डरपोक ही भले।’

डिब्बे अब पूरी रफ्तार पकड़ चुके थे। कटी हुई पहाड़ियों के बीच वह तेजी से जा रहे थे। थोड़ी-थोड़ी देर के बाद राजन और पार्वती उछलकर एक-दूसरे से टकरा जाते और फिर दृढ़तापूर्वक डिब्बे के किनारों को पकड़ लेते। पार्वती ने थोड़ी दूर पर एक अंधेरी सुरंग को अपनी ओर बढ़ते देखा तो भय के मारे उसका हृदय काँपने लगा। उसने राजन की ओर देखा तो उसके मुख से यह प्रतीत होता था, जैसे आने वाली अंधेरी गुफा की उसे कोई चिंता ही नहीं। ज्यों-ज्यों सुरंग समीप आती गई – पार्वती सरककर राजन के पास हो गई। जब गाड़ी ने सुरंग में प्रवेश किया तो चारों ओर अंधेरा छा गया।

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