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जलती चट्टान

गुलशन नन्दा

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :251
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9579

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‘आज तो मंदिर में भीड़ कम होगी।’

‘जी – यही कोई दो-चार इने-गिने मनुष्य।’

बाबा कुछ देर में चुप हो गए। पार्वती शाल उतार सामने रखने को बढ़ी और अचानक रुक गई। अंगीठी पर फूल पड़े थे, जो वह पूजा के लिए मंदिर ले गई थी। पार्वती सिर से पाँव तक काँप गई।

‘माधो आया था, शायद उसके हाथ में थे।’ बाबा ऐनक डिब्बे में बंद करते हुए कहा और पार्वती को आग के समीप आने का संकेत किया। पार्वती डरते-डरते अंगीठी के करीब आ बैठी और बाबा की ओर आश्चर्यपूर्वक देखने लगी। बाबा फिर कहने लगे-

‘कल मैनेजर हरीश ने बुलाया है।’

‘क्यों?’

‘शाम की चाय पर।’

‘तुम्हारे पिता के स्थान को संभालने के कारण वह हमारे समीप आने से झिझकता रहा।’

‘क्या कोई खास बात है, तो....।’

‘यूँ ही जरा दो घड़ी मिल बैठने को माधो कहता था और तुम्हें साथ लाने की खास ताकीद की है।’

‘मुझे! न बाबा मेरा वहाँ क्या काम?’

‘काम हो न हो, जाना अवश्य है और फिर आज पहली बार उसने बुलाया है – यदि हम न गए तो वह क्या सोचेंगे।’

‘परंतु साँझ को मंदिर भी तो जाना है।’

‘एक दिन घर के ठाकुरों को ही फूल चढ़ा देना।’

यह कहकर बाबा कुर्सी से उठकर बाहर जाने लगा। पार्वती चुप बैठी जलती आग के शोलों को देख रही थी। आग के अंगारे की तपन से उसका मुख लाल हो रहा था। वह सोच में थी कि बाबा से क्या कहे। उसे कुछ भी नहीं सूझ रहा था।

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