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आधुनिक अंसार कम्बरी की लोकप्रिय ग़जलें
इस परिपेक्ष में यह कहा जा सकता है कि जहाँ उर्दू ग़ज़ल ने हिन्दी में ग़ज़ल कहने वालों को फ़न्नी जानकारी हासिल करने के लिये प्रेरित किया तो वहीं हिन्दी ग़ज़ल ने उर्दू ग़ज़ल के लबोलहजे को नया रूप देने में मदद की है। वर्तमान ग़ज़ल को हम हिन्दी-उर्दू का अन्योनाश्रित यानी मिला-जुला स्वरुप कह सकते हैं।
मैंने बात शुरू की थी कृतज्ञता ज्ञापित करने से, मैं कृतज्ञता ज्ञापित करता हूँ अपने काव्य गुरु स्वर्गीय कृष्णानंद चौबे जी के कुछ संस्मरणों से जो दिनांक १४-०३-२०१० को जीवन संगनी तीन पुत्र एक पुत्री एवं कानपुर के साहित्यकारों. पत्रकारों और अपने शिष्यों को रोता-बिलखता छोड़कर इस नश्वर संसार से हमेशा के लिये चले गये। उनके न रहने से कानपुर के साहित्यिक जगत में जो रिक्तता हुई है उसका भर पाना असंभव नहीं तो मुश्किल ज़रूर है। सहज. निश्छल. कर्मनिष्ठ, ईमानदार, विनोदी, मितभाषी एंव संवेदना के सागर श्रद्धेय पंडित कृष्णानंद जी को मैंने पहली बार सन् १९७२ में अपने कार्यालय उद्योग निदेशालय के प्रांगण में देखा था। मेरी नियुक्ति नई-नई थी। उस दौर में उद्योग निदेशालय में ही नहीं तक़रीबन सभी कार्यालयों में २६ जनवरी, १५ अगस्त एंव होली-ईद के अवसरों पर समारोह हुआ करते थे। होली का अवसर था, निदेशालय की ओर से होली मिलन समारोह में काव्य पाठ चल रहा था। पंडित जी ने इस समारोह में काव्य-पाठ किया था, जिससे मैं भी बहुत प्रभावित हुआ था। मुझे आज भी याद है, उन्होंने एक हास्य कविता सुनाई थी, जिसका शीर्षक था ‘मेरी सुंदर पड़ोसन’ कविता कुछ इस प्रकार थी
“मेरी सुंदर पड़ोसन ने मुझसे माँगा मेरा एक चित्र /
मैंने उसको समझा मेनका. अपने को विश्वामित्र /
मैंने कहा एक नहीं दो चित्र ले जाईये /
एक ड्राइंगरूम में और एक किचिन में लगाईये /
उसने कहा नहीं-नहीं! दो चित्र लेना सरासर बेइंसाफ़ी है/
बच्चों को डराने के लिये एक ही चित्र काफ़ी है।”
ये पंक्तियाँ उनके विनोदी स्वरुप का परिचय कराती हैं, जबकि वे निहायत ही संजीदा इंसान थे। संजीदगी के साथ किया गया विनोद उनकी ख़ास पहचान थी।
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