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कर्म और उसका रहस्य

स्वामी विवेकानन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :38
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9581

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कर्मों की सफलता का रहस्य


प्रत्येक कर्तव्य पवित्र है और कर्तव्य-निष्ठा भगवत्पूजा का सर्वोत्कृष्ट रूप है, बद्ध जीवों की भ्रान्त, अज्ञानतिमिराच्छन्न आत्माओं को ज्ञान और मुक्ति दिलाने में यह कर्तव्य-निष्ठा निश्चय ही बड़ी सहायक है।

जो कर्तव्य हमारे निकटतम है, जो कार्य अभी हमारे हाथों में है, उसको सुचारु रूप से सम्पन्न करने से हमारी कार्य शक्ति बढंती है और इस प्रकार क्रमशः अपनी शक्ति बढ़ाते हुए हम एक ऐसी अवस्था की भी प्राप्ति कर सकते हैं, जब हमें जीवन और समाज के सबसे ईप्सित एवं प्रतिष्ठित कारयों को करने का सौभाग्य प्राप्त हो सके।

प्रकृति का न्याय समान रूप से निर्मम और कठोर होता है। सर्वाधिक व्यवहार-कुशल व्यक्ति जीवन को न तो भला कहेगा और न बुरा।

प्रत्येक सफल मनुष्य के स्वभाव में कहीं न कहीं विशाल सच्चरित्रता और सत्य निष्ठा छिपी रहती है, और उसी के कारण उसे जीवन में इतनी सफलता मिलती है। वह पूर्णतया स्वार्थहीन न रहा हो, पर वह उसकी ओर अग्रसर होता रहा था। यदि वह सम्पूर्ण रूप से स्वार्थहीन होता, तो उसकी सफलता वैसी ही महान् होती, जैसी बुद्ध या ईसा की। सर्वत्र निःस्वार्थता की मात्रा पर ही निर्भर रहती है।

मानव जाति के महान नेता मंच पर व्याख्यान देने की अपेक्षा उच्चतर कार्य क्षेत्र के हुआ करते हैं।

यदि हम पवित्रता या अपवित्रता का अर्थ अहिंसा या हिंसा के रूप में लें, तब हम चाहे जितना प्रयास करें, हमारा कोई भी कार्य पूर्णतया पवित्र या अपवित्र नहीं हो सकता। हम बिना किसी की हिंसा किये बिना जी या साँस तक नहीं ले सकते। भोजन का प्रत्येक गेरास हम किसी न किसी के मुंह से छीन कर ही खाते हैं, हमारा जीवन कुछ अन्य प्राणियों के जीवन को मिटाता रहता है। चाहे वह जीवन मनुष्य का हो, पशु का अथवा छोटे से कुकुतमुत्ते का, पर कहीं न कहीं किसी न किसी को हमारे लिये मिटना ही पड़ता है। ऐसा होने के कारण यह स्पष्ट ही है कि कर्म द्वारा पूर्णता कभी प्राप्त नहीं की जा सकती। हम अनन्त काल तक कर्म करते रहें, पर इस जटिल भूलभुलैया से बाहर निकलने का मार्ग नहीं पा सकते। हम कर्म पर कर्म करते रहें, परन्तु उसका कहीं अन्त न होगा।

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