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कर्म और उसका रहस्य

स्वामी विवेकानन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :38
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9581

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कर्मों की सफलता का रहस्य


इस संसाररूपी व्यायामशाला में भगवान् तुम्हें अपने रग-पुठ्ठों को व्यायाम द्वारा दृढ़ बनाने का अवसर देते हैं – इसलिए नहीं कि तुम उनकी सहायता करो, बल्कि इसलिए कि तुम स्वयं अपनी सहायता कर सको।

क्या तुम सोचते हो कि तुम अपनी सहायता से एक चींटी तक को मरने से बचा सकते हो? ऐसा सोचना घोर ईश निन्दा है।

संसार को तुम्हारी तनिक भी आवश्यकता नहीं। संसार चलता जाता है, तुम इस संसारसिन्धु में एक बिन्दु सदृश हो। बिना प्रभु की इच्छा के एक पत्ता भी नहीं हिल सकता, हवा भी नहीं बह सकती।

हम धन्य हैं जो हमें यह सौभाग्य प्राप्त है कि हम उनके लिए कर्म करें, - उनको सहायता देने के लिए नहीं। इस ‘सहायता’ शब्द को मन से सदा के लिए निकाल दो। तुम किसी की सहायता नहीं कर सकते। यह सोचना कि तुम सहायता कर सकते हो, महा अधर्म है – घोर ईश निन्दा है। तुम स्वयं उनकी इच्छा से यहाँ पर हो।

क्या तुम्हारे कहने का यह तात्पर्य है कि तुम उनकी सहायता करते हो? नहीं, सहायता नहीं, तुम उनकी पूजा करते हो। जब तुम कुत्ते को एक ग्रास खाना देते हो, तब तुम कुत्ते की ईश्वर रूप से पूजा करते हो। ईश्वर उस कुत्ते में है – कुत्ते के रूप में प्रकट हुआ है। वही सबकुछ है और सबमें है। हमें उसकी आराधना करने की आज्ञा प्राप्त है।

समस्त विश्व के प्रति यही आदर का भाव लेकर खड़े हो जाओ, और तब तुम्हें पूर्ण अनासक्ति प्राप्त हो जाएगी। यही तुम्हारा कर्तव्य होना चाहिये। कर्म करने का यही उचित भाव है। कर्मयोग इसी रहस्य की शिक्षा देता है।

।।समाप्त।।

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