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कर्म और उसका रहस्य

स्वामी विवेकानन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :38
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9581

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कर्मों की सफलता का रहस्य


यदि हम अपने जीवन का विश्लेषण करें तो हम देखेंगे कि दु:ख का सबसे बड़ा हेतु यह है : हम कोई बात हाथ में लेते हैं और अपनी पूरी ताकत उसमें लगा देते हैं; कभी कभी असफलता होती है, पर फिर भी हम उसका त्याग नहीं कर सकते। यह आसक्ति ही हमारे दु:ख का सबसे बड़ा कारण है। हम जानते हैं कि वह हमें हानि पहुँचा रही है और उसमें चिपके रहने से केवल दु:ख ही हाथ आएगा, परन्तु फिर भी हम उससे अपना छुटकारा नहीं कर सकते। मधुमक्खी तो शहद चाटने आयी थी, पर उसके पैर चिपक गयें उस मधुचषक से औऱ वह छुटकारा नहीं पा सकी। बार बार हम अपनी यही स्थिति अनुभव करते हैं। यही हमारे अस्तित्व का सम्पूर्ण रहस्य है। हम यहाँ आये थे मधु पीने, पर हम देखते हैं हमारे हाथ-पाँव उसमें फँस गयें हैं। आये थे पकड़ने के लिए, पर स्वयं पकड़े गये। आये थे उपभोग के लिए, पर खुद ही उपभोग्य बन बैठे। आये थे हुकूमत करने, पर हम पर ही हुकूमत होने लगी। आये थे कुछ काम करने, पर देखते हैं कि हमसे ही काम लिया जा रहा है। पर घड़ी यही अनुभव होता है। हमारे जीवन की छोटी छोटी बातों का भी यही हाल है। दूसरों के मन हम पर हुकूमत चला रहे हैं और हम सदा यही प्रयत्न कर रहे हैं कि हमारी हुकूमत दूसरों के मनों पर चले। हम जीवन के आनन्द का उपभोग करना चाहते हैं, पर वे भोग हमारे प्राणों का ही भक्षण कर जाते हैं। हम प्रकृति से सब कुछ प्राप्त कर लेना चाहते है, पर अन्तत:हम यही देखते हैं कि प्रकृति ने हमारा सर्वस्व हरण कर लिया है, उसने हमें पूरी तौर से चूसकर अलग फेंक दिया है।

यदि ऐसा न होता, तो जीवन में सब हरा-भरा ही होता। पर चिन्ता नहीं। यद्यपि सफलताएँ मिलती हैं और असफलताएँ भी, यद्यपि यहाँ आनन्द है और दु:ख भी, तो भी यह जीवन निरंतर हरा-भरा रह सकता है, यदि केवल हम बन्धन में न पड़ जायँ।

दु:ख का एकमेव कारण यह है कि हम आसक्त हैं, हम बँधते जा रहे हैं। इसीलिए गीता में कहा है : निरंतर काम करते रहो, पर आसक्त मत होओ; बन्धन में मत पड़ो। प्रत्येक वस्तु से अपने आपको स्वतंत्र बना लेने की शक्ति स्वयं में संचित रखो। वह वस्तु तुम्हें बहुत प्यारी क्यों न हो, तुम्हारा प्राण उसके लिए चाहे जितना ही लालायित क्यों न हो, उसके त्यागने में तु्म्हें चाहे जितना कष्ट क्यों न उठाना पड़े, फिर भी अपनी इच्छानुसार उसके त्याग करने की अपनी शक्ति सँजोये रखो। कमजोर न तो इह जीवन के योग्य हैं, न किसी पर जीवन के। दुर्बलता से मनुष्य गुलाम बनता है। दुर्बलता से ही सब प्रकार के शारीरिक और मानसिक दु:ख आते हैं। दुर्बलता ही मृत्यु है। लाखों-करोड़ो कीटाणु हमारे आसपास हैं, पर जब तक हम दुर्बल नहीं होते, जब तक शरीर उनके प्रति पूर्व-प्रवृत्त नहीं होता, तब तक वे हमें कोई हानि नहीं पहुँचा सकते। ऐसे करोड़ो दु:ख रूपी कीटाणु हमारे आसपास क्यों न मँडराते रहें, पर कुछ चिन्ता न करों। जब तक हमारा मन कमजोर नहीं होता, तब तक उलकी हिम्मत नहीं कि वे हमारे पास फटकें, उनमें ताकत नहीं कि वे हम पर हमला करें। यह एक बड़ा सत्य है कि बल ही जीवन है और दुर्बलता ही मरण। बल ही अनन्त सुख है, अमर औऱ शाश्वत जीवन है, औऱ दुर्बलता ही मृ्त्यु।

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