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कटी पतंग

गुलशन नन्दा

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :427
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9582

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एक ऐसी लड़की की जिसे पहले तो उसके प्यार ने धोखा दिया और फिर नियति ने।

 

1


''थोड़ी-सी और-बस दो घूंट!"

''ऊंहूं!, ज्यादा न सताओ बनवारी।"

''जिद न करो शबनम! देखो ना, गले की सारी रगें सूख रही हैं। पूरे बदन में खलबली-सी मच रही है।''

''आग से आग नहीं लगेगी तो और क्या होगा! अच्छा, मैं चली।''

''शिब्बू! मेरी शिब्बू। रूठ गईं क्या?"

''जब तुम अपनी शबनम को आग के पास रखोगे तो-तो उसका विनाश होगा ही!"

शबनम की इस भावात्मक बात पर बनवारी हंस पड़ा। उसने उसे खींचकर बिस्तर पर डाल दिया और गुदगुदाने लगा। वह बेचारी फुसफुसी-सी हंसी के साथ बिस्तर में मचलकर रह गई। कुछ अधिक तंग करने पर अपने-आपको छुड़ाने के लिए बनवारी की नंगी पीठ में काट लिया। बनवारी की हंसी एक हल्की-सी कराह में बदलकर रह गई।

कमरे के अंधकार में इन खुसर-फुसर की आवाज़ों को सहसा किसी आहट ने दबा दिया। उखड़ी हुई सांसें कुछ क्षण के लिए रुक गईं। लकड़ी की सीढ़ियों से किसी के कदमों की चाप उस कमरे की ओर बढ़ती आ रही थी।

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