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कलंकिनी

गुलशन नन्दा

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :259
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9584

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यह स्त्री नहीं, औरत के रूप में नागिन है…समाज के माथे पर कलंक है।

वह रात…वह भयानक रात…बाहर बिजली फिर से कौंधी और वातावरण थर्रा गया। नीरा की अचानक नींद खुल गई। उसे यों लगा जैसे उसके कोमल होंठों पर किसी बिच्छु ने काट खाया हो…और फिर उसे अपने शरीर पर एक विचित्र-से बोझ का भास हुआ। द्वारकादास के मुंह से निकलकर दुर्गन्धमय सांस उसके गालों से टकरा रही थी। इन बातों से अनजान होते हुए भी वह अंकल के आशय को समझ गई थी। वह सोचने लगी…न जाने भगवान इन बातों का ज्ञान कैसे स्वयं ही हर व्यक्ति को एक समय पर प्रदान कर देता है। वह नीरा, जिसे व्याकरण का पाठ पढ़ाने और गणित के प्रश्न समझाने में मास्टर जी को अपना माथा फोड़ना पड़ता था। कैसे क्षणभर में जान गई कि अंकल के मन में मैल उतर आया था और वह किसी बुरी कामना से उसे भींचे जा रहे थे। वह विचार आते ही वह कांप गई और उसकी जकड़ से बाहर निकलते हुए बोली—

‘आज नींद नहीं आ रही आपको अंकल।’

‘नहीं…तुम्हें देखकर उड़ गई।’

‘वह क्यों? मुझे तो आपके पास आकर बड़ी अच्छी नींद आई।’ उसने चंचलता से कहा। नीरा को वह पूरा वार्तालाप याद आ गया—दस वर्ष पहले की उस रात का। इस प्रश्न पर अंकल ने फिर उसे अपने समीप खींच लिया था। ये बातें हुई थीं।

‘यह जो कबूतर जैसा दिल है ना तेरा…धक-धक कर रहा है…यह सोने हीं देता।’

‘तो मैं जाऊं?’ यह कहते हुए नीरा ने उनके लिहाफ से निकलने का प्रयत्न किया था किन्तु अंकल ने उसे बाहों में कैद कर लिया था और मुस्कराते हुए बोले थे—

‘पगली…तू चली जाएगी तो क्या नींद आ जायेगी?’

‘और क्या? न यह कबूतर गुटरगूं करेगा और न आपकी नींद नष्ट होगी।’

‘बड़ी चंचल होती जा रही है तू…।’ द्वारकादास ने उसके वक्ष पर नन्हे उभरते हुए फूलों को टटोलते हुए कहा…उसकी इस हरकत पर उसे अजीब-सा लगा था—उसे क्रोध भी आया था और वह सटपटाकर उससे दूर हट गई थी। अंकल के हाथ फिर बढ़े थे जिन्हें झटके से अलग कर दिया था।

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