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कलंकिनी

गुलशन नन्दा

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :259
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9584

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यह स्त्री नहीं, औरत के रूप में नागिन है…समाज के माथे पर कलंक है।

नीरा खिड़की को छोड़कर उसकी ओर बढ़ी…धीरे-धीरे द्वारकादास की बाहें उसे अपनी लपेट में लेने के लिए उत्सुक थीं उसने होंठों पर जबान फिराई और उसे बाहुपास में लेने के लिए दोनों हाथ बढ़ा दिए। नीरा की श्वेत चमकती साड़ी का आंचल लहराया, उसे अंधेरे में यों लगा जैसे मानो वह भी बांहे फैलाए उसकी ओर बढ़ी आ रही थी। सहसा बादलों की गरज में वातावरण कांप उठा।

इसी गरज के साथ कमरे में एक शोला-सा भड़का—दो गोलियां द्वारकादास की छाती को छेदती हुई उसके शरीर में धंस गईं। इसी समय बाहर जबरदस्त बिजली की चमक ने कमरे में प्रकाश कर दिया। द्वारकादास के मुंह से निकला, नीरू!’ उसकी आंखों ने क्षण-भर के लिए सामने खड़ी शेरनी को देखा। प्रथम बार एक देवी के रूप में और वे पथरा गयीं, उनकी ज्योति बुझ गयी। वह प्यार—वे आकांक्षाएं, वह वासना…ढेर हो गई।

बाहर बादल की गर्जन पिस्तौल की गोलियों की आवाज को दबा न सकी। घर में एक शोर हुआ। भागो—दौड़ो—खून—किन्तु नीरा को कोई चिन्ता न थी। वह मूर्ति बनी सामने पड़ी उस देह को देख रही थी, कहां थी वह आत्मा जो आज अपने जीवन को सबसे रंगीन, सबसे उन्माद भरी और सबसे विलासमय रात मनाना चाहती थी। उसके सम्मुख तो एक ढेर था—निर्जीव हड्डियों और मांस का ढेर—न अंकल थे…न सेठ द्वारकादास था।

हवा के तेज झोंकों ने ऊपर वाली खिड़की के किवाड़ खोल दिए थे और कमरे में रखी चीजें बिखरने लगी थीं। नीरा शांत निश्चिंत एकटक द्वारकादास की लाश को देख रही थी। उसकी शांति तब भंग हुई जब प्रवेश द्वार पर थापों की ध्वनि बढ़ गई और वह आंखें बंद करके दूसरी ओर देखने लगी।

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