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कलंकिनी

गुलशन नन्दा

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :259
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9584

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यह स्त्री नहीं, औरत के रूप में नागिन है…समाज के माथे पर कलंक है।

‘आराम इस संसार में…इस एटॉमिक युग में…चलिए मैं तैयार हूं…तस्वीर लीजिये।’

पारस ने सरसरी दृष्टि से उसे देखा। यद्यपि उसका पोज अब भी ठीक न था किन्तु उसने पुनः उसके समीप जाने का साहस न किया और चुपचाप तस्वीर उतार ली।

‘धन्यवाद। अभी और कितनी फिल्म है? नीरा ने उसके पास आते हुए पूछा।

पारस ने फिल्म का नम्बर देखा और बोला—

‘बस यह अन्तिम है…कहिए कहां और…?’

‘एक बात मेरी मानिये अब…।’ नीरा ने उसकी बात पूरी न होने दी और बीच में बोली।

‘कहिये…।’

‘यह तस्वीर मेरी न होगी…।’

‘जी?’ वह बौखलाया।

‘जी…आप अब उस बेल के पास खड़े हो जाइये और कैमरा मुझे दीजिये।’

‘किन्तु मैं तो…।’

‘नहीं…यह तो आप ही की तस्वीर होगी।’ यह कहते हुए नीरा ने स्वयं ही उसके हाथ से कैमरा ले लिया। पारस चुपचाप बेल के पास जाकर खड़ा हुआ।

‘क्या नेचुरल पोज है…रेडी…।’ नीरा ने झट कैमरे का बटन दबा दिया।

पारस ने जब जाने की आज्ञा मागी तो नीरा ने पर्स खोलकर उसकी ओर सौ रुपये का नोट बढ़ाया।

‘यह क्या?’ नोट को स्वीकार न करते हुए उसने आश्चर्य से कहा।

‘आपकी फीस…मेरा अभिप्राय है फिल्म इत्यादि के पैसे…।’

‘आप मुझे लज्जित कर रही हैं, माना कि आपके सम्मुख मैं तुच्छ हूं किन्तु आपको मेरी विवशता की हंसी यों नहीं उड़ानी चाहिये।’

‘आप बुरा मान गये—अच्छा जाने दीजिये…मैंने तो यह बात मित्रता के नाते कही थी…।’

मित्रता का शब्द सुनकर वह कुछ सोचने लगा। नीरा की आंखों में एक चंचल हंसी थी। जिसे देखकर वह झेंप गया।

‘आपकी नौकरी का क्या हुआ?’ नीरा ने पूछा।

‘प्रयत्न कर रहा हूं…अच्छा नमस्ते…अब चलता हूं।’ पारस ने उससे विदा ली और चला गया।

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