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कलंकिनी

गुलशन नन्दा

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :259
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9584

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यह स्त्री नहीं, औरत के रूप में नागिन है…समाज के माथे पर कलंक है।

पारस दूसरे दिन निश्चित समय पर द्वारकादास के दफ्तर पहुंच गया। काम-काज समझाते हुए द्वारकादास ने निकट भविष्य में उसे पदोन्नति का वचन दिया और यहां तक कह दिया कि वह उसके काम से संतुष्ट हुआ तो संभवतः उसे साझीदार बना लेगा।

इन बातों का पारस के मन पर गहरा प्रभाव पड़ा। द्वारकादास ने पहले दिन से ही उस पर अपनी कृपाओं का जाल बिछा दिया था। उसने हर काम को बड़ी बुद्धिमता से समझा और जान तोड़कर कर्तव्यपालन में लग गया। उसने कुछ दिनों में ही द्वारकादास के मन पर अधिकार जमा लिया। द्वारकादास अनुमान भी न लगा सकता था कि वह इतनी शीघ्र इस सुगमता से काम संभाल लेगा।

शाम को जब द्वारकादास घर लौटता तो नीरा पारस को सौंपे गये काम के विषय में कई प्रश्न करती। द्वारकादास के मुख से उसकी प्रशंसा सुनकर वह फूली न समाती। इस सफलता का श्रेय उसी को मिलना चाहिये था, उसी ने पारस को खोजा था। किन्तु अपने मन की बात वह अंकल पर प्रकट न होने देती। वह यह नहीं चाहती थी कि वह किसी प्रकार की शंका करे। वह पारस को देखने के लिए अति व्याकुल थी किन्तु, यह साहस नहीं कर पा रही थी कि अंकल से उसे घर आने की प्रार्थना करे। वह डरती थी कि अंकल के मन में यह संदेह दृढ़ न हो जाए कि वह उससे प्रेम करती थी।

इसी प्रकार कई दिन बीत गए। नीरा को एक प्रकार का एकाकीपन असहनीय हो गया। उस दिन से अब तक उसे पारस से मिलने का कोई अवसर नहीं मिला था। दो-एक बार उसने उसे फोन भी करना चाहा था किन्तु अंकल की उपस्थिति का विचार कर साहस न कर सकी। वह सोचने लगी यदि वह पारस के पास नहीं जा सकती तो उसे तो आना चाहिये था। पर यह कैसे हो सकता है यदि अंकल ने उसे यहां आने का आदेश न दे रखा हो, यह सोचकर वह उदास हो गई।

एक दिन शाम को जब वह बाग में टहल रही थी तो नौकर ने पारस को टेलीफोन पर बुलाने की सूचना दी। वह अनायास टेलीफोन को रिसीव करने के लिए कमरे की ओर बढ़ी किन्तु, कुछ सोचकर वहीं रुक गई।

‘क्या कहा है?’ उसने नौकर से पूछा।

‘सेठजी के बारे में पूछ रहे थे।’

‘क्या अंकल वहां नहीं ?’

‘जी नहीं आपसे पुछवा भेजा है कि आपको उनके आने की शायद सूचना हो।’

‘कह दो वह घर पर नहीं—और न कोई संदेश छोड़ गए हैं।’

बड़ी विचित्र बात थी। स्वयं उससे बात करना चाहते हुए भी वह इतना साहस न कर पाई। वह एक दुविधा में थी…एक अनोखा मानसिक संघर्ष था प्यार और मान का। चाह का और गर्व का।

सोचों में खोई नीरा सिर नीचा किये अपने कमरे में चली गई।

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