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कलंकिनी

गुलशन नन्दा

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :259
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9584

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यह स्त्री नहीं, औरत के रूप में नागिन है…समाज के माथे पर कलंक है।

 

‘किसका पत्र है?’

‘मां का, अम्बाला से आया है।’ पारस ने शीघ्रता से पत्र को लपेटते हुए द्वारकादास के प्रश्न का उत्तर दिया।

‘कुशल तो है, क्या लिखा है?’

‘आपका धन्यवाद किया है, मेरी नौकरी के लिये।’

‘इसमें धन्यवाद की तो कोई बात नहीं, तुम कह रहे थे अम्बाला में वह अकेली हैं।’

‘जी एक छोटी बहिन भी है।’

‘स्कूल में पढ़ती होगी?’

‘जी नहीं, इस वर्ष मैट्रिक की परीक्षा में बैठी है।’

‘अब फिर कालेज में भेजने का विचार होगा?’

‘नहीं, मां अब उसका ब्याह कर देना चाहती है।’

‘कब तक?’ द्वारकादास ने उसकी घरेलू बातों में रुचि जताते हुए पूछा।

‘जब भगवान करेगा। इस नौकरी की सबसे अधिक प्रसन्नता मां को इसी कारण हुई कि अब उसका ब्याह शीघ्र हो सकेगा।’

‘कोई लड़का देख रखा है क्या?’

‘जी, सगाई भी हो चुकी है, अब तो ब्याह के लिए उचित समय निश्चित करना है।’

‘मेरा विचार है सगाई हो जाने के बाद अधिक समय तक रुके नहीं रहना चाहिये, तुरन्त ब्याह हो जाना ही उचित है।’ मुंह में रखा सिगार सुलगाते हुए द्वारकादास ने कहा और फिर गर्दन घुमाकर तिरछी दृष्टि से उसकी निस्सहायता का अनुमान लगाने लगा।

‘कहते तो आप ठीक हैं किन्तु, विवश हूं और कोई उपाय नहीं।’ पारस ने अपनी बेबसी प्रकट करते हुए कहा।

द्वारकादास ने क्षणभर गंभीर होकर उसकी ओर देखा फिर कुछ सोचकर बोला—‘पारस। मां को लिख दो लड़की के ब्याह की तैयारियां आरंभ कर दें।’

‘किन्तु।’

द्वारकादास ने उसे वाक्य पूरा न करने दिया और बोला, ‘चिन्ता न करो। रुपए का पूरा प्रबन्ध हो जाएगा, जितनी भी आवश्यकता हो खजांची से ले लो, मैं उसे कह दूंगा।’ यह कहते हुए उसने धुएं का एक लम्बा कश छोड़ा और सुगन्धमय तम्बाकू की महक कमरे में छोड़ते हुए बाहर चला गया।

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