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कलंकिनी

गुलशन नन्दा

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :259
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9584

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यह स्त्री नहीं, औरत के रूप में नागिन है…समाज के माथे पर कलंक है।

‘मुझसे नाराज हो क्या?’ उसने कुछ देर उसकी ओर देखते रहने के पश्चात् मौन तोड़ा।

‘ऊं हूं—।’ नीरा ने दबे स्वर में बिना उसकी ओर देखते हुए कहा।

पारस उसके समीप बैठ गया और प्यार से अपनी ठोढ़ी उसके कंधे पर रखते हुए बोला—

‘मैं तुम्हारे मन की पीड़ा को भली-भांति समझता हूं—नीरू।’

नीरा इस वाक्य पर चौंक सी गई और शंकामय दृष्टि से उसकी ओर देखने लगी। पारस ने उसे मौन पाकर मुस्कराते हुए फिर कहा—

‘तुम्हारी इन गुलाबी आंखों, बोझिल पलकों और मुख पर की उदासी से पूर्ण स्पष्ट है।’

‘क्या?’ नीरा ने सहमे हुए झट पूछा।

‘कि तुम रातभर न सो सकीं…।’ और फिर उसका मुख अपनी ओर मोड़ते हुए बोला—‘और सो भी कैसे सकती थीं, प्रतीक्षा जो थी किसी की।’

यह वाक्य पारस ने कुछ ऐसे ढंग से कहा कि नीरू के दिल में शूल-सा उतर गया। वह मूर्तिमान पीड़ा को मन में बसाकर बैठी रही। पारस की पहेली-सी बातों को सुनकर वह घबरा गई थी। आखिर जब उसे कोई बात न सूझी तो उसने पूछा—‘कब लौटे पूना से।’

‘अभी थोड़ी देर पहले।’

‘जाइए।’ हम आपसे बात नहीं करते।’

‘क्यों?’

‘आप हमें अकेले छोड़कर क्यों चले गए थे?’

‘मैं विवश था नीरू…।’

‘आपकी साधारण-सी विवशता ने मुझ पर क्या कुछ किया होगा, शायद आप यह नहीं जानते और जानेंगे भी क्यों?’

‘मैं जानता हूं।’

‘कैसे?’ नीरा ने उससे आंखें मिलाते हुए पूछा।

‘यह सेज देखकर…यह कुम्हलाए और मसले हुए फूल इस बात के साक्षी हैं कि आज रात क्या बीती होगी…।’ पारस ने मुस्कराते हुए उसे देखा।

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