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कलंकिनी

गुलशन नन्दा

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :259
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9584

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यह स्त्री नहीं, औरत के रूप में नागिन है…समाज के माथे पर कलंक है।

 

पूर्णिमा की सुन्दर उज्ज्वल रात थी। सागर की लहरों में हल्का-सा उठता हुआ शोर बढ़ता जा रहा था, नीरा और पारस जुहू की ठण्डी रेत पर औंधे लेटे हुए कभी सागर की ओर देखते, कभी चांद की ओर फिर एक-दूसरे की ओर।

‘चुप क्यों हो।’ पारस ने धीरे से उसके कान में कहा।

‘इन लहरों का मधुर संगीत सुन रही हूं कैसा लग रहा है?’

‘मैं तो कुछ और ही सोच रहा था।’

‘क्या?’ नीरा ने सिर उठाकर पूछा।

पारस ने लगभग उसके कान से होंठों को छूते हुए उत्तर दिया—‘तुम्हारे दिल की धड़कन।’

नीरा लजा गई और सागर में लहरों का नृत्य देखने लगी, चांदनी में लहरों का नृत्य। पारस ने अपनी ठोड़ी नीरा की पीठ पर रख दी और वह भी दूर इठलाती हुई लहरों को देखने लगा, वह प्रतीक्षा कर रहा था कि कब नीरा इन लहरों से दृष्टि हटाकर उसकी ओर देखे और उसके गले में बांहें डालकर प्यार से कहे, ‘चलो? अब घर चलें…रात बहुत बीत गई है।’ और फिर वे दोनों एक-दूसरे की पीठ पर हाथ डाले हुए उन राहों में खो जाएं जहां आंखें देखती नहीं बल्कि रसपान करती हैं…पीती हैं—जहां जबान कुछ नहीं कहती केवल धड़कनों से वार्तालाप होता है…जहां एक-दो का भेद मिट जाता है…वह न जाने क्या-क्या सोच रहा था कि नीरा ने एकाएक प्रश्न किया—

‘क्या कह रही थी आपसे?’

‘कौन?’

‘मेरे, दिल की धड़कन…आपने ध्यान से सुना है ना।’

‘ओह! कहते हुए डर लगता है।’

‘क्यों, डर काहे का?’

‘तो…तो…कह दूं…।’ वह उससे अलग होते हुए बोला।

‘हां, कह दो।’ वह उठकर घुटनों के बल बैठ गई।

पारस कुछ देर प्यार से उसकी आंखों में झांकता रहा और फिर बोला—‘यह कह रही हैं, यह…।’

‘यह कह रही हैं कि लड़की मैं नहीं आप हैं जो यों शरमा रहे हैं।’ नीरा ने उसकी बात पूरी की।

‘नीरू! यह कह रही हैं कि अब इन सुन्दर दृश्यों से मुंह मोड़ लो।’

‘क्यों?’

‘ऐसा न हो कि रात यों ही समाप्त हो जाये—और हम तरसते रहें।’

नीरा उठ खड़ी हुई और बोली, ‘यह बात मेरे दिल की नहीं आपके दिल की है।’

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