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कलंकिनी

गुलशन नन्दा

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :259
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9584

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यह स्त्री नहीं, औरत के रूप में नागिन है…समाज के माथे पर कलंक है।

‘तो लीजिए मैं हार गई।’ नीरा ने मुस्कराते हुए उसके सीने पर सिर टिका दिया।

‘तो चलो अब घर चलें।’

‘एक छोटी-सी प्रार्थना है…।’ नीरा ने अनुरोध किया।

‘क्या?’

‘क्या ऐसा नहीं हो सकता कि हम आज घर न जाएं।’ उसने रुकते-रुकते कहा।

‘किन्तु।’

‘वह सामने हनीमून शेड देखे हैं आपने?’ नीरा ने सामने झोपड़ियों की ओर संकेत दिया, ‘क्यों न मधुर रैन यहीं व्यतीत की जाएं…इन झोपड़ियों में।’

पारस ने इसका समर्थन किया और दोनों उन ‘शेड्स’ की ओर चल पड़े।

पूरे चांद की रात हर्ष से खिल उठी। सागर में लहरों के साज पर ‘मिलन’ की धुन बजने लगी। वातावरण मुस्करा पड़ा।

दूसरे दिन सवेरे नाश्ते के समय नीरा को स्वयं मेज सजाते देखकर द्वारकादास को जीवन का यह एकाएक परिवर्तन अच्छा न लगा। जिस लड़की ने जीवन भर स्वयं पानी का एक गिलास न भरा हो, वह बड़े चाव से काम कर रही थी।

चेहरे पर कृत्रिम मुस्कराहट लिए वह गोल कमरे से उठा और नीरा के पास आकर कुर्सी खिसका के बैठ गया। नीरा को यह झूठी मुस्कराहट विष-सी बनकर लगी किन्तु उसने अपने भावों को संकोच में छिपा लिया और प्यालों को सीधे करने लगी, द्वारकादास ने उसे सिर से पांव तक निहारा और धीमे से पूछने लगा—‘पारस कहां है?’

‘स्नान कर रहे हैं।’ उसकी आंखों में एक अनोखा-सा अजनबीपन आ गया था जिसे द्वारकादास ने अनुभव किया और एक हल्का-सा निःश्वास खींचा, ‘कहिए तो आपका नाश्ता भिजवा दूं।’ क्षणभर रुककर उसने पूछा।

‘नहीं…ऐसी शीघ्रता भी क्या…पारस को आ लेने दो, इकट्ठे खा लेंगे।’

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