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कलंकिनी

गुलशन नन्दा

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :259
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9584

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यह स्त्री नहीं, औरत के रूप में नागिन है…समाज के माथे पर कलंक है।

नीरा ने उसे विदा करने के लिए स्टेशन तक आना चाहा किन्तु पारस ने अंकल को पीड़ा में छोड़कर उसका आना उचित न समझा और रोक दिया। नीरा विवश मन को दबाकर चुप बैठी रही। उसे द्वारकादास पर अत्यधिक क्रोध आ रहा था किन्तु वह विवश थी, उसका वश चलता तो आज सब बंधन तोड़कर अपने प्रीतम के संग चली जाती किन्तु, वह यह कैसे कर सकती थी, इस जाल को तोड़ना उसके लिए संभव न था।

रात को अंधेरा बढ़ता जा रहा था। नीरा अपने कमरे में बैठी अपने दुर्भाग्य पर आंसू बहा रही थी। ज्यों-ज्यों अंधकार बढ़ता जा रहा था। उसका भय बढ़ता जा रहा था उसके सम्मुख इस अंधकार के पर्दे में रह-रहकर अंकल की छवि आती जिस पर मानवता का खोल चढ़ा हुआ था। वह चेहरा कई भयानक रूप लेकर उसके सामने आता और अपनी सफलता पर एक विषैली हंसी हंसता। इसी हंसी पर नीरा कांप के रह जाती।

एकाएक वह चौंक गई। कोई उसे पुकार रहा था। सामने वकील साहब को खड़े देखकर वह झट संभली और अभिवादन को उठ खड़ी हुई।

‘कब आए आप?’ उसने पूछा।

‘देर हुई, द्वारकादास के पास बैठा हुआ था।’ वकील साहब ने उत्तर दिया।’

‘वह सो गए क्या?’

‘नहीं…पीड़ा से व्याकुल हैं वह।’

‘यदि उचित समझें तो डाक्टर को…।’

‘वह इंजेक्शन दे गया है…अब तो तीन-चार घंटे बाद ही इसका प्रभाव पता चलेगा…अच्छा तो मैं चलता हूं…गुड नाइट।’

‘गुड नाइट…।’ नीरा ने उत्तर दिया। वकील साहब द्वार के पास जाकर रुक गये और पलटकर फिर बोले—‘और हां नीरू, उन्हें गरम पानी की बोतल से सेंक करना ठीक रहेगा…मैं नौकर को बोल आया हूं।’

नीरा ने कोई उत्तर न दिया और बैठ गई, वकील साहब को गए बड़ी देर हो गई तो अचानक उसे विचार आया कि कहीं वास्तव में ही अंकल को अत्यन्त पीड़ा हुई तो…उसे वह उनकी चाल समझ के टाल रही है हो सकता है सत्य ही हो। ऐसी दशा में उसे उससे सहानुभूति होनी चाहिये थी…आखिर उसका कर्तव्य भी है यह…ध्यान आते ही वह, द्वारकादास के कमरे की ओर रवाना हो गई।

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