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कलंकिनी

गुलशन नन्दा

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :259
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9584

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यह स्त्री नहीं, औरत के रूप में नागिन है…समाज के माथे पर कलंक है।

युवा मदमाते शरीर के स्पर्श से द्वारकादास की विलासता की ज्वाला और भड़क उठी थी। धन की बुड्ढी हड्डियों में एक बिजली-सी कौंध गई थी। शीघ्रता से उसके पास आकर बैठ गया और फिर उसके शरीर की गरिमा को अपनी धमनियों में बसाते हुए बोला—

‘क्यों मेरी नीरू?’ धीमे स्वर में अत्यन्त कोमलता थी।

‘यह कब तक चलता रहेगा?’ नीरू ने बिना उसकी ओर देखते हुए पूछा।

‘मैं समझा नहीं…।’ द्वारकादास ने अनजान बनते हुए पूछा।

‘यह आधी-आधी रातों का जागना-समाज के सामने स्वच्छता और सत्य का उदाहरण बनना और रातों को पर्दे में पाप…भयानक पाप, दुनिया के सम्मुख बाप-बेटी का नाता और वास्तव में…।’

द्वारकादास ने उसे बात पूरी न करने दी और उसके मुंह पर हाथ लगाते हुए उसे अपने शरीर के साथ भींच लिया।

‘नीरू। मेरी अच्छी नीरू…इसे पाप न कहो। यह तो प्रेम है।’ नीरा की ठोड़ी को ऊपर उठाते हुए द्वारकादास ने संभलते हुए कहा।

‘प्रेम, कैसा प्रेम?’ नीरा ने निन्दा भरी दृष्टि से देखते हुए पूछा।

‘प्रेम। जो कि पवित्र होता है…प्रेम जो दो आत्माओं में आकर्षण बनकर उन्हें एक-दूसरे के निकट लाता है, हम प्रतिक्षण एक-दूसरे के समीप आ रहे हैं, कुछ सामाजिक विवशता है जिसके कारण हम इसे संसार पर प्रकट नहीं कर सकते।’

‘यह मैं जानती हूं किन्तु हर कार्य की कोई मंजिल होती है, कोई उद्देश्य होता है…हमारा यह सम्बन्ध हमें कहां ले जाएगा, इसका अन्तिम रूप क्या होगा, मेरे लिए तो इसका अनुमान लगाना भी कठिन है।’

‘यह सोचने की तुम्हें आवश्यकता ही क्या, यह भीगी रात, यह तुम्हारा यौवन, यह सौन्दर्य, यह उन्माद, यह जीवन रस…आओ। समय नष्ट करने से क्या लाभ? आओ। प्यार कर लें…जीवन ने दो-चार उल्लासमय क्षण दिए हैं, उनका आनन्द भोगें।’

यह कहते हुए द्वारकादास ने अपना चेहरा नीरा की बिखरी हुई घनघोर जुल्फों में छिपा लिया। उसने बलपूर्वक नीरा को अपने शरीर से लगा लिया। उसी समय उसकी हड्डियों में अत्यन्त बल न जाने कहां से आ गया था। नीरा ने हारे हुए सिपाही के समान हथियार छोड़ दिए। उसका मनोबल न जाने कहां गया। अपना शरीर निशदिन के समान उसे अंकल को सौंप दिया और अन्धकारमय खोह का अनुमान लगाने लगी जहां वह विवश सी खिंची चली जा रही थी।

बाहर वर्षा और तेज हो गई थी। हवा और पानी के थपेड़े खिड़की और द्वार पर निरन्तर आक्रमण कर रहे थे किन्तु द्वारदाकास को इसकी चिन्ता न थी…नीरा भावहीन पड़ी थी। वे ऐसी दुनिया में पहुंच गए थे जहां तूफान और किनारा अपनी सीमाएं निश्चित करने में असमर्थ थे।

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