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कलंकिनी

गुलशन नन्दा

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :259
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9584

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यह स्त्री नहीं, औरत के रूप में नागिन है…समाज के माथे पर कलंक है।

‘और मेरी कमजोरी तुम हो नीरू—मेरा सब कुछ तुम हो।’ वह एक ही सांस में कह गया।

‘नहीं अंकल।’ नीरा की आंखों में आंसू छलक आये। उसके मन का दुःख इन जल कणों के रूप में उभर आया।

‘तूम झूठ बोलकर मेरी उभरी हुई भावनाओं पर तो राख डाल सकती हो किन्तु मेरे निश्चय को बदलना तुम्हारे वश की बात न होगी।’ दांत पीसते हुए द्वारकादास बोला।

‘तो एक काम कीजिए।’ नीरा ने आवेश में आकर कहा और फिर शीघ्र ही धीरे से बोली, ‘मेरा ही गला दबाकर मुझे सदा की नींद सुला दीजिये।’

द्वारकादास मुस्करा पड़ा और झट अपने स्वर को नम्र करते हुए बोला—‘हम जिनसे प्यार करते हैं उन्हें मृत्यु की नींद नहीं सुलाते, उन्हें नयनों में बिठाते हैं—दिल में स्थान देते हैं। उनकी तनिक-सी बेवफाई से पत्थर नहीं बन जाते, बल्कि उन्हें क्षमा करके दिल से लगाते हैं—नीरू। इतनी पत्थर दिल और कठोर न बनो कि मेरा प्रेम केवल एक दाग बनकर रह जाए—लौट आओ नीरू—अब लौट आओ मेरे पास।’

द्वारकादास भावना में आकर पिघल गया। नीरा के कोई उत्तर न देने पर उसने उसके कंधों पर हाथ रख दिया और धीरे से बोला—

‘हां नीरू! इतना मत तरसाओ कि मैं दीवाना हो जाऊं—तुम्हारे बिना जीना अत्यन्त कठिन है विश्वास न आये तो इस दिल की धड़कन से पूछ लो—इसमें तुम्हारा प्रेम…।’

‘अंकल। आप मुझे मन से प्यार करते हैं?’ नीरा ने पूछा।

‘हां नीरू! मेरे जीवन का प्रत्येक क्षण, मेरी हर धड़कन तुम्हारे वश में है।’

‘सच्चे प्रेम में मानव को कुछ त्याग करना पड़ता है।’

‘मैं समझा नहीं।’

‘मेरा अभिप्राय है सच्चा प्रेम बलिदान मांगता है।’

‘अर्थात्।’ वह बौखला-सा गया।

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