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काँच की चूड़ियाँ

गुलशन नन्दा

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :221
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9585

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एक सदाबहार रोमांटिक उपन्यास

''अरी...री...रूपा...सुन तो! देख मैं कभी न कहूंगी...'' रूपा, गंगा की परेशानी की परवाह किये बिना ही अपने घर की ओर भाग आई। इससे पहले कि वह भैया के मन की बात जानने की युक्ति करे, वह ठिठक कर खड़ी हो गई। मोहन रसोईघर में काकी के पास बैठा खाना खा रहा था। मोहन के होंठों पर उसी की बात थी। वह दीवार का सहारा लेकर ओट से मोहन और काकी की बातचीत सुनने लगी।

''तुम जीवन को तो जानती हो काकी?''

''वही तुम्हारा बचपन का लंगोटिया...''

''हाँ, अब वह एक डाक्टर बन गया है और पैसे भी अच्छे कमा लेता है...''

''अरे वह नटखट डाक्टर बन गया?''

''हां। उसी की बात तो कर रहा था। तुम्हारा विचार हो तो रूपा की बात करूं... घर की जमींदारी अलग है और घराना भी अपनी बराबरी का है।''

''यह भी कोई पूछने की बात है। तेरी बहन है, चाहे जहां व्याह दे...'' रूपा यह सब सुनकर चौंकी। कहां वह दूसरे के मन को टटो- लने आई थी, और यहां स्वयं ही फंस गई। यह बात देर तक पेट में न रख पाई और यह उन्हीं पांवों गंगा को यह सब बताने चली गई। अगले दिन त्योहार था। सब लोग नदी पर स्नान को जा रहे थे। गंगा जब काम से निबटी तो उसने भी नदी पर जाने का विचार बांधा और वह रूपा के घर चली आई।

रूपा ड्योढ़ी में चूड़ी वाले से चूडियां पहिन रही थी। गंगा को देखकर प्रसन्न हो बोली- ''ठीक समय पर आई हो। कहो तो, कौन सा रंग पहनूं?''

''गंगा चुपचाप निकट चली आई। उसने कांच की कई रंगबिरंगी चूड़ियों को छुआ पर मन किसी पर न जमा। अन्त में सुनहरी रंग की चूड़ियों को छूकर बोली- ''यह कैसी रहेंगी..''

''बहुत ही सुन्दर...'' चूड़ी वाली ने झट गंगा की बात काटी; ''क्या रंग चुना है...इधर चूड़ियां पहनीं... उधर शहनाइयां बजने की तैयारियां होने लगीं।''

''मुझे नहीं चाहिए यह रंग'' रूपा झुंझला कर बोली।

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