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काँच की चूड़ियाँ

गुलशन नन्दा

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :221
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9585

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एक सदाबहार रोमांटिक उपन्यास

अपने नाम को सुन गंगा का मुख संकोच से लाल हो गया। आगे बढ़कर उसने मालिक को अभिवादन किया और चुपचाप बाहर चली गई। प्रताप ने एक बार फिर उस अल्हड़ यौवन को निहारा और बंसी की ओर देखकर बोला-

''देखो, जब तक तुम्हारा बुखार बिल्कुल न उतर जाये, काम पर न आना। तुम्हें आराम की सख्त जरूरत है।''

''किन्तु...काम...''

''अरे! काम तो चलता ही है। तुम चिन्ता न करो। कुछ दिन मंगलू निबटा लेगा।''

''हां, बंसी! तुम्हारे ताप की सुनकर तो मालिक रात-भर सोये नहीं, सोकर उठते ही तुम्हें देखने चले आये।'' मंगलू ने मालिक की हां में हां मिलाई।

इससे पहले कि बंसी अपनी विवशता का कुछ वर्णन करता, प्रताप ने जेब में से एक सौ रुपये का नोट निकाल कर बंसी को थमा दिया। बंसी की चकित दृष्टि पहचान कर प्रताप बोला- ''रख लो… दवा-दारू के काम आयेंगे।''

आज पहली बार बंसी ने मालिक को इतना दयावान पाया था फिर भी वह यह धन, दान के रूप में लेने को सहमत न था। प्रताप उसके मनोभाव को समझ कर बोला- ''संकोच न करो, तुम्हारे वेतन की पेशगी है, धीरे-धीरे कट जायेगी।'' गंगा दूसरे कमरे से शर्बत बनाकर ले आई। बापू पर हुई कृपा से उसका मन मालिक के प्रति आदर से भर उठा था।

जब गंगा शर्बत का गिलास प्रताप को देने लगी, तो वह उसके मदमाते यौवन का रस अपनी आँखों में उतार रहा था। उसकी दृष्टि की तृष्णा से लग रहा था कि वह शर्बत के साथ ही गंगा के यौवन को भी पी जाना चाहता था।

जब गंगा लौट गई तो प्रताप ने कुर्सी से उठते हुए कहा, ''अरे, बंसी तुम्हारी गंगा इतनी जवान हो गई यह तुमने अब तक क्यों नहीं कहा, वरना हम तुम्हारा वेतन चार महीने पहले ही बढ़ा देते।''

''माई-बाप ऐसा भी क्या,'' मंगलू ने समर्थन करते हुए कहा, ''सरकार के घर देर भले हो, अन्धेर नहीं है।''

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