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काँच की चूड़ियाँ

गुलशन नन्दा

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :221
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9585

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एक सदाबहार रोमांटिक उपन्यास

एकाएक गंगा ने पलट कर बापू को देखा। अधरों की गुनगुनाहट सहसा थम गई।

''बापू... '' खुशी से वह बंसी की ओर बढ़ते हुऐ बोली।

बंसी ने बिना उत्तर दिये अपना कोट उतार कर बेटी के हाथ में दे दिया। चिन्ता ने उसे थका दिया था। मन की चिन्ता चेहरे पर उभर आई थी।

''बापू! जानते हो मैं कहां गई थी?'' कोट रखते गंगा ने पूछा।

''ऊँ हूं...''

''मालकिन के घर...''

मालकिन के शब्द पर बंसी ने चौंक कर गर्दन उठाई और कड़ी दृष्टि से गंगा की ओर देखने लगा।

''उन्होंने मुझे अपने यहां नौकरी कर लेने को कहा है...'' गंगा ने डरते-डरते कहा।

''तूने क्या उत्तर दिया?'' बंसी ने कठोर स्वर में पूछा।

गंगा सहम गई और फिर धीरे से बोली, ''मैंने कहा, बापू से पूछकर बताऊंगी... ''

''ठीक किया तूने... हमें नहीं चाहिए किसी की नौकरी... अभी तेरा बापू जीवित है...''

बापू किसी बात पर खिन्न है, यह तो गंगा ने अनुभव किया, किन्तु इस खिन्नता का कारण उसकी समझ में न आया। शायद बापू बहुत थक गये हैं, काम जो इतना करना पड़ता है। उसे प्रसन्न करने के लिए गंगा ने झट वह साड़ी जो तारामती ने उसे दी थी, सन्दूक में से निकालकर बापू के सामने बिछा दी और भोलेपन से बोली, ''यह उन्होंने दी है मुझे...''

साड़ी को देखकर बंसी अपने दबे हुए क्रोध को और न रोक सका और आवेश में आते हुए बोला, ''हमें नहीं चाहिए यह दान... हम कोई भिखारी हैं क्या?'' यह कहते हुए उसने साड़ी गंगा के हाथ से छीनकर परे फेंक दी।

गंगा डर से सहम गई और चुप हो गई। फिर कुछ रुक कर नम्रता से बोली, ''मैं तो ले ही नहीं रही थी। मालकिन ने बलपूर्वक मुझे दे ही। कहने लगीं, तेरा बापू कौन होता है ना करने वाला... यह मेरी आज्ञा है। मैं स्वयं भी उससे कह दूंगी...''

बेटी की आंखों में छलके हुए आंसू देखकर बंसी का हृदय पिघल आया। उसने उठकर स्नेह से उसे गले लगाया और बोला-

''नहीं बेटी, नहीं...मेरे जीवन में तू किसी के यहां नौकरी करे... भीख मांगे... यह हरगिज़ न होगा... मैं दिन-रात एक कर दूंगा पर अपनी फूल जैसी बिटिया को काम न करने दूंगा।''

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