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काँच की चूड़ियाँ

गुलशन नन्दा

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :221
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9585

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एक सदाबहार रोमांटिक उपन्यास

''यह जानकर भी मुझसे दूर भाग जाना चाहती हो?''

''मैं नहीं, भाग तो आप रहे हैं।''

''..मैं, सो कैसे गंगा?''

''यह बात न होती तो आप मुझे यूँ तड़पता छोड़कर शहर जाते?''

''नौकरी का सवाल है पगली, बिना इसके जीवन कैसे चलेगा?''

''आपने तो काम का सहारा ले लिया... मैं किसके सहारे जीऊँगी?''

''मेरी याद जो है।''

गंगा की पलकें नम हो गईं और उसकी आंखों में आंसू ढलके और मोहन के कुर्ते पर लुढ़क कर रह गये। प्रेमाश्रुओं की दो बूँदों से मोहन के शरीर में बिजली-सी दौड़ गई। उसने गंगा की कोमल उंगलियों को अपने दोनों हाथों में दबाया। उसकी दी हुई काँच की चूड़ियां गंगा की कलाइयों में छनक उठीं। जैसे इन चूड़ियों ने एक स्वर में उनके प्यार-बन्धन पर उल्लास प्रकट किया हो।

''गंगा! मैंने एक निश्चय कर लिया है।''

''क्या?''

''तुम्हें अपना जीवन-साथी बनाने का।''

''कहीं दुनिया...''

''इसका मुझे डर नहीं... मेरा इस संसार में है ही कौन... ले-दे कर एक काकी हैं, वह कभी ना नहीं करेंगी।''

''क्या तुम्हें विश्वास है?''

''हां, इसलिए कि वह तुम्हें अपनी रूपा से कम प्यार नहीं करतीं, और हां गंगा, आज मैं उनसे साफ-साफ कह दूँगा...।''

''क्या?'' गंगा ने उत्सुकतापूर्वक मोहन की ओर देखते हुए पूंछा।

''तुम्हारे बापू से बात पक्की कर लें..''

गंगा मोहन से अलग हो गई और रुक-रुककर इतना ही कह पाई, ''इन काँच की चूड़ियों में बंधे प्यार की लाज रखना।''

उस रात जव बंसी घर लौटा तो रूपा की मां प्रसाद लिये आ पहुंची और बोली, ''मोहन शहर जा रहा है। उसे चीनी की मिल में नौकरी मिल गई है।''

बंसी ने उसे बधाई दी और बोला, ''मेरा दुर्भाग्य है कि दो घड़ी न उसके साथ बैठ सका, न ही उसे अपने घर बुला सका।''

''अरे! इसमें क्या धरा है, मैं कब इस बात पर नाराज़ हूँ।''

''वास्तव में तुम जानो रूपा की मां, काम से फुरसत ही कहां मिलती है...'' बंसी ने अपनी विवशता प्रकट की।

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