लोगों की राय

ई-पुस्तकें >> काँच की चूड़ियाँ

काँच की चूड़ियाँ

गुलशन नन्दा

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :221
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9585

Like this Hindi book 2 पाठकों को प्रिय

241 पाठक हैं

एक सदाबहार रोमांटिक उपन्यास

''कुछ नहीं - अब तुम जाकर सो जाओ....'' बंसी ने झुंझलाकर कहा। एकाएक उसे विचार आया कि वह बेटी से अनुचित बात कह बैठा है।

गंगा ने बापू को दोबारा खाने का आग्रह किया पर बंसी ने फिर इन्कार कर दिया। उसे चिन्तित देखकर गंगा ने और कुछ कहना उचित न समझा और उठकर अपने कमरे में जाने लगी।

''तुमने खाना खा लिया क्या?'' बंसी ने उसे रोकते हुए पूछा।

''ऊँ हूँ...''

''क्यों... जाकर खा ले....''

''भूख नहीं बापू...''

''क्यों? तेरी भूख को क्या हुआ है?'' बंसी ने झुँझलाकर कोधित स्वर में पूछा और प्रश्नसूचक दृष्टि बेटी के मुख पर गड़ा दी।

गंगा के मुख पर ऐसा भाव था मानो कह रही हो - बापू! जब तुम ने दो कौर भी नहीं खाये तो मैं भला क्योंकर खा सकती हूं ... बंसी मुस्करा पड़ा और स्नेह से उसे थपथपाते हुए बोला-

''जा! खाना परोस ला... जितनी भूख है दोनों मिलकर खा लेंगे।''

गंगा के उदास मुख पर प्रसन्नता की लहर दौड़ गई। वह झट उठी और बापू के लिए खाना लेने रसोईघर में चली आई।

भोजन करते हुए बंसी ने पूछा-

''कोई आया तो नहीं था घर में?''

''हाँ। चौबे जी आये थे बापू!''

''चौबे? क्या कहता था?'' बंसी का मुख सहसा मलीन हो उठा।

''अपने रुपये मांगता था...''

''रुपये? उसे और काम ही क्या है...कल मिलूंगा उससे।'' बंसी ने घबराहट पर अधिकार पाने का प्रयत्न करते हुए कहा।

''हाँ बापू! समय निकालकर उससे एक बार अवश्य मिल तो। उसका रोज-रोज यों आंगन में धरना देकर बैठ जाना अच्छा नहीं लगता।''

बंसी ने हां में गर्दन हिलाई और चुपचाप खाना खाता रहा। वह सोच रहा था कि कल चौबे को कैसे टालेगा।

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book