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काँच की चूड़ियाँ

गुलशन नन्दा

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :221
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9585

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एक सदाबहार रोमांटिक उपन्यास

गंगा उसकी बेटी थी - युवा और अविवाहित। लोग उसकी गरीबी पर हंस रहे थे, उसकी बिवशता का उपहास कर रहे थे। उसने कड़कते स्वर में सामने खड़े मजदूरों का नाम पुकारा और नोट गिनने लगा। मज़दूरों की हंसी रुक गई। गंगा की पायल की ध्वनि नोटों की सरसराहट में मिल गई। मंगलू की भूखी दृष्टि अभी तक गंगा को निहार रही थी, जो दूर गांव की पहाड़ी पगडंडी पर हिरनी की तरह भागी जा रही थी। वह गन्ना चूसना भूल गया था; किन्तु गन्ने का रस अभी तक उसके होंठों पर चिपक रहा था। अब इस रस में मिठास के अतिरिक्त गंगा के यौवन-रस का भी आनन्द था। देखते-ही-देखते गंगा पहाड़ियों में खो गई। मंगलू को एक धक्का-सा लगा। उसने जोर से गन्ने को दांतों से काटा और बंसी से बोला-

''बंसी काका...''

''क्या है रे मंगलू?'' बंसी ने पंक्ति में खड़े अगले व्यक्ति को बढ़ने का संकेत करते हुए पूछा।

''अरे! तेरी बिटिया तो सावन की घटा के समान देखते ही देखते जवान हो गई है, कुछ सोचा भी है?''

''क्या?'

''जल्दी ही इसकी शादी कर दे...जवानी किसी आपत्ति से कम नहीं काका।''

''मंगलू...'' कर्कश आवाज से बंसी ने मंगलू की हँसी बन्द कर दी। क्रोध से उसका वृद्ध शरीर कांप उठा, आंखों में लहू उतर आया। इसी दशा में अपना काम छोड़कर क्षण-भर वह मंगलू की ओर देखता रहा और फिर बोला, ''खबरदार! जो फिर इस जबान पर मेरी बेटी का नाम लाया।''

मंगलू तो चुप हो गया, किंतु वह बूढ़ा मज़दूर जो बंसी के रजिस्टर पर अँगूठा लगा रहा था, मुस्कराते हुए बोला, ''बंसी! इसमें बुरा मानने की क्या बात है? मंगलू झूठ थोड़े ही कहता है, चंचल जवानी और पानी की फुहार भला कहे से रुकती है?''

बंसी से कोई उत्तर न बन पाया। बह सिर झुका कर फिर नोट गिनने लगा। उंगलियां मशीन की भाँति नोटों की गड्डी पर चल रही थीं; किन्तु उसका मस्तिष्क कहीं और था। वह सोचने लगा, मंगलू ठीक ही कहता है। वास्तव में गंगा अब जवान हो गई है? तभी तो कल तक उसे बेटी और वहन की दृष्टि से देखने वालों के मन में खोट उतर आया है। मंगलू को सबके सामने उसे यह कहते हुए तनिक भी संकोच न हुआ...पर सत्य में संकोच क्या...ये लोग उसकी विवशता को क्या जानें? क्या वह पिता नहीं? उसे अपनी लाज और बेटी के भविष्य का ध्यान नहीं? ब्याह के लिए धन चाहिए और उसके पास फूटी कौड़ी न बचती थी। अस्सी रुपये चीज ही क्या हैं। पेट भर रोटी चलती नहीं इसमें...

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