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काँच की चूड़ियाँ

गुलशन नन्दा

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :221
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9585

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एक सदाबहार रोमांटिक उपन्यास

''यदि देर से पहुंची तो केवल चिन्ता ही करेगा, परन्तु इस गाड़ी में जाने से तो वह मेरा लहू पी जाएगा।''

''क्यों?''

''जब गरीब लालच में आकर किसी अमीर का उपहार स्वीकार कर लेता है तो उसे पछताना पड़ता है इसीलिए... '' यह कहकर गंगा चुपचाप आगे बढ़ गई।

गंगा के मुख से वह वाक्य सुनकर प्रताप तड़प उठा। उसे यूं लगा कि गंगा ने उसके मनोभाव पढ़ लिए हों। कोध में उसने जीप स्टार्ट की और धूल उड़ाता आगे चला गया।

उड़ती हुई धूल से बचने के लिए गंगा ने आंचल से मुंह ढांप लिया... शायद अमीरों के पास गरीबों को देने के लिए यह धूल ही है।

बड़ी शाम ढले तक गंगा घर न लौटी तो बंशी व्याकुल हो उठा। वह रह-रहकर बिछौने पर करवटें बदलता और फिर मन को सांत्वना देने के लिए बच्चों को गली के नुक्कड़ पर भेज देता। जब मंजू ने आकर बापू को चम्पा द्वारा ज्ञात संदेश दिया कि गंगा शहर गई है, तो वह क्रोध से लगभग पागल हो गया। उसे बेटी की असावधानी अच्छी न लगी। उसे तो अपने बापू का जीवन चाहिए... पर पगली यह नहीं जानती कि उसके बापू को अपने जीवन से अधिक अपनी बेटी की इज्जत प्यारी थी। उसने मन ही मन निश्चय कर लिया कि वह उसका काम छुड़वा देगा चाहे स्वयं भीख ही क्यों न मांगे।

देर तक प्रतीक्षा ने उसके धैर्य के बांध तोड़ दिए। जब अंधेरा और बढ़ गया तो वह विछौने से उठ बैठा और वैसाखी का सहारा लेकर बाहर जाने लगा।

''कहां जा रहे हो बापू?'' मंजू ने पिता को बाहर जाते देखकर पूछा।

''कहीं नहीं, अभी आया तुम्हारी दीदी को देखकर....'' बोझल स्वर में वह बोला।

''किन्तु बाबा! डाक्टर ने चलना-फिरना तो मना कर रखा है।'' बंसी ने बात सुनी-अनसुनी कर दी और फिर बैसाखी टेकता हुआ आंगन के बाहर आ गया। शरत चुपचाप खड़ा बापू को देख रहा था। वह झट से लालटेन उठा लाया और बापू को देकर बोला, ''बाहर अंधेरा है बापू.....''

वंसी ने लालटेन थाम ली और धीरे-धीरे बच्चों की आँखों से ओझल हो गया।

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