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मन की शक्तियाँ

स्वामी विवेकानन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :55
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9586

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स्वामी विवेकानन्दजी ने इस पुस्तक में इन शक्तियों की बड़ी अधिकारपूर्ण रीति से विवेचना की है तथा उन्हें प्राप्त करने के साधन भी बताए हैं


हम अपने भौतिक दु:खों का अधिकांश भाग दूर कर सकते हैं, अगर हम इन सूक्ष्म कारणों पर अपना अधिकार चला सकें। हम अपनी चिन्ताओं को दूर कर सकते हैं, अगर यह सूक्ष्म हलचल हमारे अधीन हो जाय। अनेक अपयश टाले जा सकते हैं, अगर हम इन सूक्ष्म शक्तियों को अपने अधीन कर लें। यहाँ तक तो उपयोगिता के बारे में हुआ; लेकिन इसके परे और भी कुछ उच्चतर साध्य है।

अब मैं तुम्हें एक विचारप्रणाली बतलाता हूँ। उसके सम्बन्ध में मैं अभी विवाद उपस्थित न करुँगा, केवल सिद्धान्त ही तुम्हारे सामने रखूँगा। प्रत्येक मनुष्य अपने बाल्यकाल में ही उन उन अवस्थाओं को पार कर लेता है, जिनमें से होकर उसका समाज गुजरा है, अन्तर केवल इतना है कि समाज को हजारों वर्ष लग जाते हैं जब कि बालक कुछ वर्षों में ही उनमें से हो गुजरता है। बालक प्रथम जंगली मनुष्य की अवस्था में होता है - वह तितली को अपने पैरों तले कुचल डालता है। आरम्भ में बालक अपनी जाति के जंगली पूर्वजों-सा होता है। जैसे-जैसे वह बढ़ता है, अपनी जाति की विभित्र अवस्थाओं को पार करता जाता है, जब तक कि वह अपनी जाति की उन्नतावस्था तक पहुँच नहीं जाता। अन्तर यही है कि वह तेजी से और जल्दी-जल्दी पार कर लेता है। अब सम्पूर्ण प्राणि-जगत् औऱ मनुष्य तथा निम्न स्तर के प्राणियों की समष्टि को एक जाति मान लो। एक ऐसा ध्येय है, जिसकी ओर यह समष्टि बढ़ रही है। उसे स्तर को हम पूर्णत्व नाम दे दें।

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